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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
जिन्होंने चख लिया है-ऐसे ज्ञानी जानते हैं कि ज्ञान से भिन्न ऐसे जो शुभाशुभ इन्द्रिय-विषय, उनमें कहीं मेरे सुख का अंश भी नहीं है; उनमें सुख मानना, वह मिथ्यात्व है। जहाँ सुख धरा है-ऐसे स्वविषय को भूलकर, परविषयों में सुखबुद्धि के कारण मिथ्यादृष्टि जीव, विषय-कषाय की भयङ्कर अग्नि में निरन्तर जल रहा हैदुःखी हो रहा है। अपने आत्मा को दुःखों की जलन से बचाने के लिये. हे जीव! तु शीघ्र ही विषयों से भिन्न ऐसे अपने चैतन्यअमृत के समुद्र को देख! ___ कोई प्रियजन अग्नि में जल रहा हो या मकान में आग लगी हो तो उसे बचाने के लिये सारे काम छोड़कर कितने उद्यम करता है ! तो यहाँ प्रिय में प्रिय ऐसा अपना आत्मा भयङ्कर भव-दुःख की अग्नि में जल रहा है, उसे बचाने के लिये, हे जीव! तू शीघ्र उद्यम कर.... एक सम्यग्ज्ञान ही उसका उपाय है। सम्यग्ज्ञान होने पर आत्मा में अतीन्द्रिय शान्तरस की मेघवर्षा होगी। यह सम्यग्ज्ञान ही भयङ्कर संसार-दावानल से बचने का एकमात्र उपाय है; इसलिए मुनिवरों ने सम्यग्ज्ञान की अति प्रशंसा की है। ___ अहा! देखो तो सम्यग्ज्ञान की महिमा ! सम्यग्ज्ञान हुआ, वहाँ आत्मा में धर्म की वर्षा प्रारम्भ हुई और शान्ति का अमृतरस बरसने लगा। सम्यग्ज्ञान होने पर चैतन्य में शान्ति की शीतल धाराएँ बहने लगती हैं और वे विषय-कषाय की अग्नि को बुझा देती हैं। सम्यग्ज्ञान के बिना अन्य किसी उपाय से जीव के विषय-कषाय नहीं मिटते और उसे सुख-शान्ति का अनुभव नहीं होता; इसलिए हे जीव! तू शीघ्र सम्यग्ज्ञान प्रगट कर । धर्म के अंकुर उगाने के लिये अब यह 'श्रावण मास' आ गया है।
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