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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [115 आत्मा में गहरे-गहरे.... संसार से दूर-दूर... [भव्य मुमुक्षु जीव की आनन्द की ओर ढलती दशा] हे मुमुक्षु भव्य आत्मा! इस संसार की अशान्ति से तू थका है और अब किसी परमशान्ति का वेदन तू करना चाहता है तो उसके लिये तू संसार के सङ्ग से पृथक् पड़कर जहाँ शान्ति भरी है, ऐसे अन्तर तत्त्व का सङ्ग करना, बारम्बार उसका परिचय करना। ___ हे भव्य ! जो महान कार्य तीर्थङ्करों ने साधा, वह महान कार्य तुझे साधना है; तो अब तू लौकिकजनों की तरह प्रवर्तन मत करना; लोकोत्तर ऐसे अपूर्व भाव से भगवान के मार्ग में आना। हे भाई! अभी तक तू अशान्ति में ही रहा है; सच्ची शान्ति तूने कभी देखी नहीं; इसलिए मार्ग को साधने में जरा देर लगे तो तू थकना नहीं, शिथिल नहीं होना किन्तु महान उत्साहपूर्वक इसी में लगा रहना.. मार्ग अवश्य खुल जायेगा। मार्ग तो खुला ही है। जरूरत है उसकी सच्ची भावना की। चैतन्यभाव का बारम्बार परिचय करने से मुमुक्षु अन्दर आत्मा में गहरे-गहरे उतरता है, तब उसे कुछ ऐसा वेदन होता है कि अरे! हम इस संसार के जीव नहीं, ऐसी अशान्ति के बीच हम नहीं रह सकेंगे; हम तो शान्ति से भरी हुई किसी दूसरी ही नगरी के हैं; पञ्च परमेष्ठी भगवन्त जिसमें बसते हैं-ऐसी कोई अद्भुत नगरी ही हमारा देश है। संसार से दूर-दूर... अन्तर में गहरे-गहरे हमारा चैतन्य देश है। - इस प्रकार इस मुमुक्षु के परिणाम, संसार से हटकर चैतन्य की शान्ति में प्रवेश कर जाते हैं और उसमें प्रवेश करके अपने अद्भुत चैतन्यनिधान को देखने से उसे जो अपूर्व-आत्मिक आनन्द-शान्ति और तृप्ति का वेदन होता है, उसकी क्या बात!. Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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