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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [107 देखता रहा। आँख में से आँसुओं की धारा के साथ मिथ्यात्व भी बाहर निकल गया और तत्क्षण सिंह का आत्मा, सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। जैसा निर्विकल्प अनुभव यहाँ समयसार में कहा है, वैसा निर्विकल्प अनुभव वह सिंह प्राप्त कर गया। ऐसे तो असंख्यात तिर्यञ्च निर्विकल्प अनुभव को प्राप्त हुए हैं और उससे भी ऊँची पाँचवीं भूमिका को प्राप्त मध्यलोक में सदा ही होते हैं । असंख्यात तिर्यञ्च, असंख्यात देव, असंख्यात नारकी जीव और ढाई द्वीप में अरबों मनुष्य भी शुद्ध आत्मा का निर्विकल्प अनुभव प्राप्त हैं। कैसा है वह अनुभव? पर-सहाय से अत्यन्त निरपेक्ष है। पर कहने से विकल्प की भी सहायता स्वानुभव में नहीं है। ऐसा अनुभव, वह मोक्षमार्ग है और उसमें रत्नत्रय समाहित होता है अनुभव चिन्तामणि रतन, अनुभव है रसकूप; अनुभव मारग मोक्ष का, अनुभव मोक्षस्वरूप। अहो! अनुभव में तो अतीन्द्रिय अमृत का सागर है। जैसे चिन्तामणि, जो चिन्तवन करो, वह देता है। क्या देता है? बाहर के पदार्थ। इस चैतन्य के अनुभवरूप चिन्तामणि ऐसा है कि उसे ज्ञान में लेकर चिन्तवन करने से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र -केवलज्ञान-मोक्ष सब देता है। यह अनुभव अमृतरस का कुंआ है-जिसका स्वाद चखने से आत्मा अमर होता है। जगत के सभी स्वाद से अनुभव के अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद अलग है। ऐसा स्वानुभव, वही मोक्ष का मार्ग है और वह स्वयं मोक्षस्वरूप है। सभी विकल्प तो अनुभव से बाह्य है, परवस्तु जैसे हैं। इस स्वानुभव Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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