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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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-आगम इत्यादि पूर्वक (पश्चात् वे विचार छूटकर) स्वानुभव होता है; विचार के समय जो मति-श्रुतज्ञान थे, वे ही मति-श्रुतज्ञान विकल्प छूटकर स्वानुभव में आये; इसलिए स्वानुभव में मति -श्रुतज्ञान है - ऐसा यहाँ बताया है। मति-श्रुतज्ञान ने आत्मा का जो स्वरूप जाना, उसमें ही वह मग्न होता है; उसमें जानपने की अपेक्षा से अन्तर नहीं परन्तु परिणाम की मग्नता की अपेक्षा से अन्तर है। ___ जब मति-श्रुतज्ञान अन्तर में उपयोग लगाकर स्वानुभव करते हैं, तब उस निर्विकल्पदशा में कोई अपूर्व आनन्द अनुभव में आता है। जानपने की अपेक्षा भले वहाँ विशेषता न हो, परन्तु आनन्द का अनुभव इत्यादि की अपेक्षा से उसमें विशेषता है।
धर्मी जीव, सविकल्पदशा के समय आत्मा का जो स्वरूप जानते थे, वही निर्विकल्पदशा के समय जानते हैं; निर्विकल्पदशा में कुछ विशेष प्रकार जाने-ऐसी विशेषता नहीं है, तथापि सविकल्प की अपेक्षा निर्विकल्पदशा की बहुत महिमा करते हो तो उसका क्या कारण? उसमें ऐसी कौन सी विशेषता है कि इतनी अधिक स्वानुभव की महिमा शास्त्रों में गायी है ? वह यहाँ बताते हैं।
भाई ! स्वानुभव के समय ज्ञान-उपयोग अपने शुद्धात्मा को ही स्वज्ञेय करके उसमें स्थिर हो गया है। पहले उपयोग बाहर के अनेक ज्ञेयों में और विकल्पों में भ्रमता था; वह मिटकर उपयोग अपने स्वरूप को-एक को ही जानने में एकाग्र हुआ—एक तो यह विशेषता हुई; और दूसरी विशेषता यह हुई कि पहले सविकल्पदशा के समय अनेक प्रकार के राग-द्वेष-शुभाशुभपरिणाम होने पर, स्वानुभव के समय शुद्धोपयोग होने पर बुद्धिपूर्वक के समस्त
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