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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
प्रश्न : आत्मा, पर को करता नहीं, वैसे अपनी पर्याय को भी नहीं करता – यह सही है ?
उत्तर : नहीं; ऐसा नहीं है। आत्मा स्वयं कर्ता होकर अपनी सम्यक्त्वादि परिणति को करता है, ऐसा उसका कर्तास्वभाव है। अनुभव में विकल्परहित ऐसी निर्मलपर्याय हो जाती है, उसका कर्ता आत्मा है। हाँ, उस अनुभव के काल में मैं निर्मलपर्याय को करूँ'-ऐसा विकल्प नहीं है, परन्तु स्वयं परिणमित होकर निर्मल -पर्यायरूप होता है। उस निर्मलपर्याय के कर्तारूप से विकल्परहित वह आत्मा परिणमित होता है। विकल्प बिना भी अपनी शुद्धपर्याय के कर्ता-कर्म-करण इत्यादि छह कारकरूप परिणमित होने का जीव का स्वभाव है; वह परिणमन जीव का स्वयं का है। जैसे आत्मा, पर को नहीं करता और विकल्प को नहीं करता, इसी प्रकार आत्मा अपनी ज्ञानादि पर्याय को भी न करे-ऐसा कोई नहीं कहते परन्तु मैं कर्ता और पर्याय को करूँ'-ऐसे भेद के विकल्प को करना, आत्मा के स्वभाव में नहीं है-ऐसा समझना।
प्रश्न : विकल्प से हटकर परिणति अन्तर में क्यों नहीं ढलती?
उत्तर : क्योंकि अन्तर के चैतन्यतत्त्व की वास्तविक महिमा नहीं आती और राग की महिमा नहीं छूटती। अन्तर का आनन्द तत्त्व जो कि राग से पार है, उसकी गम्भीर महिमा यदि भलीभाँति जाने तो उसमें ज्ञान झुके बिना नहीं रहे । अचिन्त्य अद्भुत स्वतत्त्व का ज्ञान होने पर ही परिणाम शीघ्रता से उसमें ढल जाते हैं, क्षणभेद नहीं। जहाँ ज्ञान अन्तर में झुका, वहाँ दूसरे अनन्त गुण भी अपने-अपने निर्मलभावरूप से खिल उठे और अनन्त गुण के
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