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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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वीतरागी चैतन्यरस का अचिन्त्य स्वाद आया-इसका नाम सम्यग्दर्शन।
प्रश्न : सम्यक्त्व की तैयारीवाले जीव को सम्यक्त्व की पूर्व भूमिका में कैसे विचार होते हैं?
उत्तर : प्रथम तो उस जीव ने स्वयं के ज्ञानस्वभाव की महिमा लक्ष्य में ली है, उसे उस स्वभाव की ओर ढलते विचार होते हैं। कोई अमुक ही प्रकार का विचार या विकल्प हो-ऐसा नियम नहीं है परन्तु समुच्चयरूप से विकल्प का रस टूटता है और चैतन्य का रस घुटता है, अर्थात् परिणति, स्वभाव की ओर उल्लसित हो जाये ऐसे ही परिणाम होते हैं। किसी को मैं ज्ञायक हूँ-ऐसे विचार होते हैं; किसी को सिद्ध जैसा आत्मस्वरूप है-ऐसे विचार होते हैं; किसी को आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द के विचार होते हैं; किसी को ज्ञान और राग की भिन्नता के विचार होते हैं; किसी को आत्मा की अनन्त शक्ति के विचार होते हैं ऐसे किसी भी पहल से अपने स्वभाव की ओर झुकने के विचार होते हैं। ___-फिर जब अन्तर की कोई अद्भुत उग्र धारा से स्वभाव -सन्मुख जाता है, तब विकल्प शान्त होने लगते हैं और चैतन्यरस घुलता जाता है, उस समय विशुद्धता के अति सूक्ष्म परिणामों की धारा द्वारा अन्तर में तीन करण' हो जाते हैं, उन तीन करण के काल में जीव के परिणाम, स्वरूप के चिन्तवन में अधिक से अधिक मग्न होते जाते हैं और फिर वह शीघ्रता से दूसरे ही क्षण निर्विकल्प-विज्ञानघन होकर परम शान्त अनुभूति द्वारा जीव स्वयं अपने को साक्षात् अनुभव करता है - यह सम्यक्त्व की विधि है।
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