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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
पाते परन्तु प्रेमपूर्वक मेरे हित के लिये अत्यन्त मधुर वचन से मुझे सम्बोधन कर रहे हैं ।
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मुनिराज के मधुर वचन सुनते ही सिंह को पूर्व भवों का ज्ञान हुआ, आँखों में से आँसुओं की धारा टपकने लगी, परिणाम विशुद्ध हुए... तब मुनिराज ने देखा कि इस सिंह के परिणाम शान्त हुए हैं और यह मेरी ओर आतुरता से देख रहा है, इसलिए यह अभी अवश्य सम्यक्त्व को ग्रहण करेगा ।
– ऐसा विचारकर मुनिराज ने उसे पूरूरवा भील से लेकर उसके अनेक भव बतलाकर कहा कि हे शार्दूल ! अब से दसवें भव में तू भरतक्षेत्र का तीर्थंकर होगा - ऐसा श्रीधर तीर्थंकर के श्रीमुख से विदेह में हमने सुना है। इसलिए हे भव्य ! तू मिथ्यामार्ग से निवृत हो और आत्महितकारी ऐसे सम्यक् मार्ग में प्रवृत्त हो । मोक्षमार्ग बतलाकर असंख्य जीवों का तारणहार, तू अभी इन निर्दोष जीवों का भक्षक हो रहा है - यह तुझे शोभा नहीं देता । इसलिए यह क्रूरता छोड़ और शान्त हो । अरे ! कहाँ चैतन्य की शान्ति ! और कहाँ यह क्रूरता ? यह क्रूरता, यह कषाय, यह हिंसा - इसमें अनन्त दुःख और अशान्ति है । तेरा चैतन्यतत्त्व परम शान्त है... उस शान्तरस का अपूर्व स्वाद अब तू चख । तेरी भव्यता से प्रेरित हम, तुझे प्रतिबोध प्राप्त कराने के लिये ही आये हैं... इसलिए अभी ही तू प्रतिबुद्ध हो ।
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महावीर का जीव (सिंह) मुनिराज के ऐसे उत्तम वचन से तुरन्त प्रतिबोध को प्राप्त हुआ; उसने अत्यन्त भक्ति से बारम्बार मुनियों को प्रदक्षिणा दी और उनके चरणों में नम्रीभूत हो गया ।
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