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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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को तू अपने हृदय में धारण कर... आज ही धारण कर... हम तुझे सम्यक्त्व प्राप्त कराने के लिये ही आये हैं।
जिस पुरुष ने अत्यन्त दुर्लभ इस सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न प्राप्त कर लिया है, वह अल्प काल में ही मोक्ष तक के सुख को प्राप्त कर लेता है। देखो! जो पुरुष एक मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है, वह इस महा संसाररूपी बेल को काटकर अत्यन्त छोटी कर डालता है। जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन है, वह जीव, उत्तम देव तथा उत्तम मनुष्य पर्याय में ही उत्पन्न होता है, इसके अतिरिक्त नरक-तिर्यंच के दुर्जन्म उसे कभी नहीं होते। अहो! इस सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में अधिक क्या कहना ! इसकी तो इतनी ही प्रशंसा बस है कि जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर अनन्त संसार का भी अन्त आ जाता है और वह मोक्षसुख का परम स्वाद अभी ही अनुभव करता है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन की परम महिमा समझाकर श्रीमुनिराज कहते हैं कि हे आर्य! तू मेरे वचनों से जिनेश्वरदेव की आज्ञा को प्रमाणभूत करके, अनन्य शरणरूप होकर (अर्थात् उस एक की ही शरण लेकर) सम्यग्दर्शन को स्वीकार कर । जिस प्रकार शरीर के हाथ-पैर इत्यादि अंगों में मस्तक प्रधान है और चेहरे में नेत्र मुख्य है; इसी प्रकार मोक्ष के समस्त अंगों में गणधर आदि आप्त पुरुष, सम्यग्दर्शन को ही प्रधान अंग जानते हैं।
हे आर्य! तू लोक-मूढ़ता, गुरु-मूढ़ता और देव-मूढ़ता का परित्याग करके, मिथ्यादृष्टि जिसे नहीं प्राप्त कर सकते, ऐसी सम्यग्दर्शन की उज्ज्वलता को धारण कर। सम्यग्दर्शनरूपी तलवार द्वारा तू संसाररूपी लता को छेद डाल । तू अवश्य निकट भव्य है
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