________________
www.vitragvani.com
56]
[सम्यग्दर्शन : भाग-5
जाता है। यह सम्यग्दर्शन ही सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का मूलकारण है; इसके बिना वे दोनों नहीं होते। सर्वज्ञ द्वारा कथित जीवादि सात तत्त्वों का, तीन मूढ़तारहित तथा आठ अंगसहित यथार्थ श्रद्धान करना, वह सम्यग्दर्शन है। नि:शंकता, वात्सल्य इत्यादि आठ गुणरूपी किरणों से सम्यग्दर्शनरूपी रत्न बहत ही शोभित होता है। हे भव्य! निःशंकता आदि आठों अंगों से सुशोभित ऐसे विशुद्ध सम्यक्त्व को तू धारण कर।
सम्यग्दर्शन का स्वरूप और उसकी परम महिमा समझाकर, वह सम्यग्दर्शन प्रगट करने की बारम्बार प्रेरणा प्रदान करते हुए श्रीप्रीतिकर मुनिराज कहते हैं-हे आर्य! जीवादि पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान करनेवाले इस सम्यग्दर्शन को ही तू धर्म का सर्वस्व समझ। यह सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर जगत् में ऐसा कोई सुख नहीं कि जो जीव को प्राप्त न हो, अर्थात् सर्व सुख का कारण सम्यग्दर्शन ही है। इस संसार में वही पुरुष श्रेष्ठ जन्म को प्राप्त हुआ है... वही कृतार्थ है... और वही पण्डित है... कि जिसके हृदय में निर्दोष सम्यग्दर्शन प्रकाशित होता है।
हे भव्य! तू निश्चितरूप से इस सम्यग्दर्शन को ही सिद्धि प्रसाद का प्रथम सोपान जान। मोक्षमहल की पहली सीढी सम्यग्दर्शन ही है, वही दुर्गति के द्वार को रोकनेवाला मजबूत अवरोध है, वही धर्म के वृक्ष का स्थिर मूल है, वही मोक्ष के घर का द्वार है और वही शीलरूपी हार के मध्य में लगा हुआ श्रेष्ठ रत्न है। यह सम्यग्दर्शन जीव को अलंकृत करनेवाला है, दैदीप्यमान है, सारभूत रत्न है, अर्थात् रत्नों में श्रेष्ठ है, सर्वोत्कृष्ट है और मुक्तिश्री को वरण करने के लिये वरमाला है। हे भव्य ! ऐसे सम्यग्दर्शन
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.