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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
और भविष्य में तीर्थंकर होनेवाला है। हे आर्य! अरिहन्तदेव के वचनानुसार मैंने यह सम्यग्दर्शन की देशना की है, उसे श्रेय की प्राप्ति के लिए तुझे अवश्य ग्रहण करनायोग्य है।
इस प्रकार आर्य-वज्रजंघ को प्रतिबोधन करने के बाद वे मुनिराज, आर्या-श्रीमती को सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे - __ हे अम्मा! हे माता! तू भी संसार-समुद्र से पार होने के लिये नौका समान इस सम्यग्दर्शन को अति शीघ्ररूप से ग्रहण कर । इस स्त्रीपर्याय में वृथा खेदखिन्न किसलिए होती हो? हे माता! तू बिना विलम्ब सम्यग्दर्शन को धारण कर। सम्यग्दर्शन होने के पश्चात् जीव को स्त्रीपर्याय में अवतार नहीं होता तथा नीचे के छह नरकों में, वैमानिक से हल्के देवों में या दूसरी किसी नीच पर्यायों में वह उत्पन्न नहीं होता। अज्ञानजन्य इस निन्द्य स्त्री-पर्याय को धिक्कार है कि जिसमें निर्ग्रन्थ मुनिधर्म का पालन नहीं हो सकता। हे माता! अब तू निर्दोष सम्यग्दर्शन की आराधना कर और उसकी आराधना द्वारा इस स्त्रीपर्याय का छेद करके क्रम-क्रम से मोक्ष तक के परम स्थानों को प्राप्त कर । तुम दोनों थोड़े से उत्तम भवों को धारण करके ध्यानरूपी अग्नि द्वारा समस्त कर्मों को भस्म करके परमसिद्ध पद को प्राप्त करोगे।
-इस प्रकार प्रीतिकर आचार्य के वचनों को प्रमाण करके आर्य वज्रजंघ ने अपनी सहधर्मिणी के साथ-साथ प्रसन्नचित्त होकर सम्यग्दर्शन धारण किया। वह वज्रजंघ का जीव अपनी प्रिया के साथ सम्यग्दर्शन प्राप्त कर अतिशय सन्तुष्ट हुआ। सत्य है, अपूर्व
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