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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
रागादिभाव अभूतार्थ धर्म हैं और भूतार्थ के आश्रय से प्रगट हुई सम्यग्दर्शनादि पर्याय, वह भूतार्थ धर्म है । द्रव्य - गुण तो त्रिकाल भूतार्थ है और उसका अनुभव करनेवाली पर्याय भी भूतार्थ हुई। 'शुद्धनय भूतार्थ है ' - ऐसा कहा है। ऐसे शुद्धनय द्वारा आत्मा का सम्यग्दर्शन होता है, सम्यग्दर्शनरूपी महान हीरा प्राप्त होता है और उसके साथ अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द का लाभ होता है-ऐसे लाभ का यह अवसर है, आनन्द की कमाई का मौसम है । उसे, हे जीव ! तू चूक मत... प्रमाद मत कर... अन्यत्र कहीं रुक मत... शीघ्र तेरे चैतन्य रत्नों की कमायी कर लेना । •
अहा! आपने मेरा जीवन बचाया
जिसे ऐसी आत्मार्थिता होती है, उसे अन्तर में आत्मा समझानेवाले के प्रति कितना प्रमोद, भक्ति, बहुमान, उल्लास और अर्पणता का भाव होता है ! वह आत्मा समझानेवाले के प्रति विनय से अर्पित हो जाता है... अहो नाथ! आपके लिए मैं क्या - क्या करूँ? इस पामर पर आपने अनन्त उपकार किया... आपके उपकार का बदला मैं किसी प्रकार चुका सकूँ - ऐसा नहीं है।
जिस प्रकार किसी को फुंफकारता हुआ भयङ्कर सर्प, फन ऊँचा करके डस ले, तब जहर चढ़ने से आकुल-व्याकुल होकर वह जीव तड़पता हो, वहाँ कोई सज्जन गारूड़ी मन्त्र द्वारा उसका जहर उतार दे तो वह जीव उस सत्पुरुष के प्रति कैसा उपकार व्यक्त करेगा ? अहा! आपने मेरा जीवन बचाया, दुःख में तड़पते हुए मुझे आपने बचाया, इस प्रकार उपकार मानता है ।
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