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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [35 अत्यन्त मधुर चैतन्यरस । जो भेदज्ञानरूपी चाबी द्वारा अन्तर में चैतन्य के आनन्दनिधान के ताले खोलकर साधक हुए हैं, जो मोक्ष के पंथ में आरूढ़ हैं, जिन्हें अन्तर में चैतन्य प्रभु का साक्षात्कार हुआ है-ऐसे ज्ञानीधर्मात्मा, मति-श्रुतज्ञान से चैतन्य के अतीन्द्रियरस का स्वसंवेदन करते हैं। अहा! जगत् के रस से भिन्न प्रकार का चैतन्य का रस है। इन्द्रपद के वैभव में या देवों के अमृत में भी वह रस नहीं। ऐसे अत्यन्त मधुर चैतन्यरस का संवेदन होने पर, ऐसी तृप्ति हुई कि सम्पूर्ण जगत का रस उड़ गया। शान्त चैतन्यरस का मधुर वेदन हुआ, वहाँ आकुलताजनक कषायों से चैतन्य का अत्यन्त भिन्नत्व हुआ। ऐसा मधुर चैतन्यरस चखने पर, देवों के अमृत के स्वाद में से भी रस उड़ गया। मति-श्रुत को स्व-सन्मुख करके धर्मात्मा ऐसे चैतन्य-स्वाद का प्रत्यक्ष स्वसंवेदन करता है, उसके अन्तर में कोई अपूर्व शान्तभाव उल्लसित होते हैं। अहा! साधक की अन्दर की क्या स्थिति है-उसकी जगत के जीवों को खबर नहीं है; उसके हृदय के गम्भीर भाव पहचानना साधारण जीवों को कठिन पड़ता है। समझना चाहे तो सब सुलभ है। यह भाव समझे तो शान्तरसरूपी अमृत का सागर उछले और जहर का (कषायों का) स्वाद छूट जाये। यह भेदज्ञान की महिमा है। भेदज्ञान द्वारा ही शान्तरस अनुभव में आता है। भेदज्ञानी होते ही जीव की ऐसी दशा होती है। ज्ञानी-धर्मात्मा, चैतन्यरस के स्वाद के समक्ष जगत् के सभी स्वादों के प्रति सदा ही उदासीन है। राग के प्रति भी अत्यन्त उदासीन है-ऐसे स्वाद को अपना नहीं मानते; स्वयं को एक ज्ञायकभावरूप ही अनुभव करते हैं-ऐसी दशा से ज्ञानी की पहिचान है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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