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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [33 पाड़कर भेद से कहनेवाले व्यवहार के लक्ष्य से वस्तु के अखण्ड सत्यस्वरूप का अनुभव नहीं होता; इसलिए उस व्यवहार को असत्य कहा है। भेद के विकल्प में न रुककर, अभेद को लक्ष्य में ले तो उसके लिये 'व्यवहार द्वारा परमार्थ का प्रतिपादन' कहने में आया है। जो शुद्ध आत्मा के स्वरूप को देखना चाहते हैं, उन्हें व्यवहार के विकल्पों में नहीं अटकना । गुणभेदरूप व्यवहार बीच में आया, परन्तु उस व्यवहार में ही खड़े रहकर कभी परमार्थ आत्मा का अनुभव नहीं होता। परमार्थ आत्मा को लक्ष्य में लेने पर, उपयोग उसमें विश्रामरूप होकर परम निराकुल आनन्द को अनुभव करता है-इसका नाम सम्यग्दर्शन है। ऐसे निर्विकल्प उपयोग बिना सम्यग्दर्शन या आनन्द का अनुभव नहीं होता। आत्मा, ज्ञान द्वारा आत्मा को जानता है-ऐसा भेद पाड़ना, वह भी व्यवहार में जाता है; वह भेद भी अभूतार्थ है। सत्य अर्थात् भूतार्थ आत्मा की अनुभूति में तो ऐसे कोई भेद नहीं रहते; वहाँ तो एक सहज ज्ञायकभाव ही अनुभव में आता है। ऐसा अनुभव ही मोक्ष को साधने का मौसम है। श्रीगुरु-सन्तों के प्रताप से अभी ऐसा मौसम अपने को प्राप्त हुआ है। ___ आत्मा का सहज एक ज्ञायकस्वभाव, वह त्रिकाल भूतार्थ है और उसमें अन्तर्मुख होकर जो शुद्धपर्याय हुई, वह भी भूतार्थ के साथ अभेद हुई होने से भूतार्थ है। ऐसे भूतार्थ आत्मा का अनुभव वह अपूर्वभाव है, वह अपूर्व समय है। पर्याय ने अपने उपयोग की थाप अन्तर के भूतार्थस्वभाव में मारी है, उस पर दृष्टि की छाप मारी है, वहाँ भूतार्थ को अवलम्बन करनेवाली पर्याय भी भूतार्थ हुई। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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