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________________ www.vitragvani.com 32] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 है। ज्ञानी उसे समझाते हैं कि बापू! तू छोटा नहीं है, तू रागी नहीं है; तू तो पूर्ण आनन्द और केवलज्ञान के निधान का स्वामी है; तब वह कहता है कि केवलज्ञान और आनन्द इत्यादि वैभव तो सिद्ध भगवान के पास होता है तथा शास्त्र में वह कहा है। ज्ञानी उससे कहते हैं कि अरे! अरिहन्त और सिद्ध भगवन्तों का उनका वैभव उनके पास है और उनके जैसा ही तेरा आत्मवैभव तुझमें है। तेरे ज्ञान-आनन्दादि वैभव तुझमें स्वयं में ही हैं, शास्त्र और ज्ञानी तो उसे तुझे दिखलाते हैं परन्तु वैभव तो तुझमें है; तेरा वैभव कहीं उनके पास नहीं है। इसलिए तू अन्तर्मुख होकर तेरे आत्मा के वैभव को देख-इसका नाम भूतार्थदृष्टि है, यह सम्यग्दर्शन है, यह जैनदर्शन का प्राण है और यह मोक्ष में प्रवेश करने का द्वार है। सहज एक ज्ञायकभाव, वह आत्मा है। उसे शुद्धनय परभावों से भिन्नरूप अनुभवता है-ऐसे आत्मस्वरूप को जिन्होंने लक्ष्य में लिया, वे निहाल होकर केवलज्ञान और मोक्ष को प्राप्त हुए हैं परन्तु जो ऐसे शुद्ध ज्ञायकभावरूप आत्मा को अनुभव नहीं करते और कीचड़वाले पानी की तरह कर्म के साथ सम्बन्धवाले अशुद्धभावरूप ही आत्मा को अनुभव करते हैं, वे शुद्धात्मा को नहीं देखते होने से संसार में भटकते हैं । शुद्ध आत्मा जो परम एक ज्ञायकभाव, उसे अन्तर में सम्यक्प से देखनेवाले जीव ही सम्यग्दृष्टि हैं। व्यवहार के अनेक प्रकार, पर का संयोग, कर्म का सम्बन्ध, रागादि अशुद्धभाव या द्रव्य-गुण-पर्याय के भेदरूप व्यवहार, वह सब अभूतार्थ है-उसका आश्रय करने से रागादि विकल्प की उत्पत्ति होती है। गुण और गुणी भिन्न तो नहीं, तथापि उन्हें भिन्न Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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