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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [31 तो लोक में सब जानते हैं; इसलिए जो शुभराग को धर्म मानते हैं, उन्हें तो लौकिक कहा है। आत्मा का धर्म तो राग से पार अलौकिक है। यह तो सर्वज्ञ भगवान के घर से आया हुआ आनन्द का परोसा है.... वीतरागी स्वाद के पकवान हैं। ___अहो! सन्तों की परम कृपा है कि इस आत्मा को वे 'परमात्मा' कहकर बुलाते हैं। पामरपना पर्याय में होने पर भी, उसे मुख्य न करते हुए सन्त कहते हैं कि हे जीव! तू तो भगवान है... अति निर्मल है... आनन्दस्वरूप है। तू भी अपने आत्मा को ऐसा ही देख। तू राग जितना नहीं; तू तो अनन्त गुण के वैभव से भरपूर है। जैनमार्ग में ऐसा परमात्मपना बतलाकर वीतरागी सन्तों ने महान उपकार किया है। एक व्यक्ति के पास बालपन से ही लाखों-करोड़ों रुपये की पूँजी थी परन्तु उसकी देखरेख उसके मामा करते थे और आवश्यकतानुसार थोड़ी-थोड़ी रकम खर्च करने के लिये देते थे; इसीलिए वह अपने को थोड़ी पूँजीवाला गरीब मान बैठा था। किसी ने उससे कहा : भाई! तू गरीब नहीं, तू तो करोडों की मिल्कत का स्वामी है ! तब वह कहता है-यह पूँजी तो मेरे मामा की है; वे दें, उतना मैं प्रयोग करता हूँ। उसके हितैषी ने कहा - अरे भाई! यह सब पूँजी तो तेरी स्वयं की ही है, मामा तो मात्र उसकी देखरेख करते हैं किन्तु पूँजी तो तेरी है। इसी प्रकार आत्मा में अपने अनन्त गुणों का वैभव परिपूर्ण है; शास्त्र और सन्त उसका वर्णन करते हैं परन्तु पर्याय में कम ज्ञान और राग-द्वेष देखकर, अज्ञानी स्वयं को उतना ही गरीब मान बैठा Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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