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________________ www.vitragvani.com 30] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 अर्थात् अपनी ज्ञानदशा के आँगन में अनन्त सिद्धों को बुलाकर स्वागत किया; जिस ज्ञान में अनन्त सिद्धों का स्वीकार किया, वह ज्ञान, राग से पृथक् पड़ गया है। शरीर में या राग में सिद्धों को नहीं पधराया जा सकता, परन्तु साधक अपनी ज्ञानपर्याय में सिद्धों को पधराता है - किस प्रकार? पर्याय को रागादि से भिन्न करके अन्तर के ज्ञानस्वभाव में एकाग्र करके। वहाँ उस पर्याय में शुद्ध आत्मा का स्वीकार हुआ और शुद्ध आत्मा के स्वीकार में अनन्त सिद्ध भगवन्तों का स्वीकार और सत्कार हुआ। उसके आत्मा में सिद्धपद के लिये सम्यग्दर्शन का शिलान्यास हो गया। हे भाई! स्वभाव से एकत्वरूप और परभाव से विभक्तरूप ऐसा जो शुद्धात्मा, उसका स्वरूप पूर्व में तूने कभी सुना नहींविचार नहीं किया-अनुभव नहीं किया और बाहर की बन्ध-कथा के श्रवण-मनन-अनुभव द्वारा ही तू संसार में दुःखी हुआ है। अब हम तुझे एकत्व-विभक्त शुद्धात्मा दिखलाते हैं, उसे तू स्वानुभव से प्रमाण करना... हाँ ही करके, उसका अनुभव करना। हमें परम आनन्द से भरपूर शुद्धात्मा के अनुभवरूप जो निज वैभव प्रगट हुआ है, उस समस्त वैभव से इस समयसार में मैं शुद्धात्मा दिखलाता हूँ..... तुम भी उसे स्वानुभव में लेना। ___ भगवान आत्मा एक ज्ञायकभाव है; उसमें प्रमत्त-अप्रमत्त ऐसी जो पर्यायें, उतना वह ज्ञायकभाव नहीं। पर्याय के भेदों से पार और गुण के भेद से भी पार परमार्थरूप एक वस्तुरूप आत्मा को देखना, वह सम्यग्दर्शन है। ऐसे आत्मा की दृष्टि अलौकिक है और दूसरे सब विकल्प शुभभाव, वे तो लौकिक हैं । शुभभाव करने की बात Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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