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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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ग्यारहवीं गाथा पढ़ी जा रही है। आचार्यदेव ने इस गाथा में जैनधर्म का रहस्य भर दिया है।
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ है।
भूतार्थ आश्रित आत्मा सदृष्टि निश्चय होय है॥ निश्चय-व्यवहार सम्बन्धी विवाद का हल हो जाये और आत्मा को सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति हो, ऐसे भाव इस गाथा में भरे हैं। व्यवहार के जो अनेक प्रकार के विकल्प, उनमें सबसे अन्तिम -सबसे सूक्ष्म व्यवहार-'ज्ञान-दर्शन-चारित्रस्वरूप आत्मा'-ऐसे गुण-गुणीभेदरूप है। ऐसे गुण-गुणीभेदरूप व्यवहार भी आश्रय करनेयोग्य नहीं है क्योंकि उसके लक्ष्य से भी विकल्प होता है; शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता। अभेद अनुभूतिरूप जो शुद्ध आत्मा, उसे दिखानेवाला शुद्धनय है, वही भूतार्थ है, उसके अनुभव से ही सम्यग्दर्शनादि होते हैं। _ 'ज्ञानस्वरूप आत्मा है'- ऐसे गुण-गुणीभेद का विकल्प, आत्मा का अनुभव करने पर बीच में आयेगा अवश्य परन्तु उसका आश्रय सम्यग्दर्शन में नहीं है। सम्यग्दृष्टि उस विकल्परूप व्यवहार का शरण लेकर अटकता नहीं है, परन्तु उसे भी छोड़नेयोग्य समझकर अन्तर के शुद्ध आत्मा को उस विकल्प से भिन्न अनुभव करता है। ऐसा अनुभव ही वीतराग का मार्ग है। मोक्ष के लिये आत्मा में यह सम्यग्दर्शनरूपी शिलान्यास करने की बात है। भूतार्थदृष्टिरूपी ध्रुव पाया डालकर जिसने आत्मा में सम्यग्दर्शनरूपी शिला रोपी, उसे अल्पकाल में मोक्ष के परम आनन्दरूपी महल होगा।
समयसार की पहली गाथा में सर्व सिद्धों को वन्दन किया...
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