________________
www.vitragvani.com
18]
[सम्यग्दर्शन : भाग-5
अभेद में घुस गया... भेद का-व्यवहार का-शुभ का अवलम्बन छोड़ने में उसे संकोच नहीं हुआ; शुद्ध आत्मा को लक्ष्य में लेते ही महान आनन्दसहित ऐसा निर्मल ज्ञान खिला कि समस्त भेद का - व्यवहार का - राग का अवलम्बन छूट गया। ज्ञान और राग की अत्यन्त भिन्नता अनुभव में आ गयी। ज्ञान के साथ आनन्द होता है; जिसमें आनन्द का वेदन नहीं, वह ज्ञान, सच्चा ज्ञान ही नहीं। आनन्दरहित के अकेले ज्ञान को वास्तविक ज्ञान नहीं कहते। अकेला परलक्ष्यी ज्ञान, वह सच्चा ज्ञान नहीं है।
शिष्य सीधे अभेद को पहुँच नहीं सका था, तब तक बीच में भेद था; श्रीगुरु ने भी भेद से समझाया था परन्तु वह भेद, भेद का अवलम्बन करने के लिये नहीं था। वक्ता को या श्रोता को किसी को भेद के अवलम्बन की बुद्धि नहीं थी; उनका अभिप्राय तो अभेदवस्तु बताने का ही था और उसी का अनुभव कराने का था। उस अभिप्राय के बल से ज्ञान को अन्तर के अभेदस्वभाव में एकाग्र करके दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भेद का अवलम्बन ही छोड़ दिया... और तुरन्त ही महान अतीन्द्रिय आनन्दसहित सम्यग्ज्ञान की सुन्दर तरंगें खिल उठी... सम्यग्दर्शन हुआ, सम्यग्ज्ञान हुआ, परम आनन्द हुआ। ऐसी निर्विकल्प अनुभूतिसहित शिष्य अपने आत्मा का शुद्धस्वरूप समझ गया।
- ऐसे भाव से समयसार सुने, उसे भी निर्विकल्प आनन्द के अनुभवसहित सम्यग्दर्शन होता ही है। यहाँ तो कहते हैं कि देर नहीं लगती, परन्तु तुरन्त ही होता है। अपने आत्मा की प्राप्ति के लिये जिसे सच्ची तैयारी होती है, उसे तुरन्त ही उसकी प्राप्ति होती
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.