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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [13 सम्यग्दर्शन होने का वर्णन निकटवर्ती शिष्य तुरन्त ही समझ जाता है और तुरन्त ही उसे आनन्दमय सुन्दर बोध तरंगें उल्लसित होती हैं। ज्ञायकभाव का अनुभव कराने के लिये समयसार की छठवीं गाथा में पर्यायभेदों का निषेध किया, अर्थात् पर्यायभेद के लक्ष्यरूप व्यवहार छुड़ाया और सातवीं गाथा में गुणभेद के लक्ष्यरूप व्यवहार छुड़ाया है। इस प्रकार व्यवहार से पार एकरूप ज्ञायकभाव का निर्विकल्प अनुभव होने पर, शुद्ध आत्मा ज्ञात होता है। इस प्रकार भेदरहित आत्मा का अनुभव करके उसे शुद्ध आत्मा कहा है। विकल्प का और भेद का अनुभव, वह अशुद्धता है; शुद्ध आत्मा के अनुभव में उसका अभाव है। ऐसे आत्मा का अनुभव होने पर चौथा गुणस्थान हुआ, अर्थात् अपने में अपने परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। उस परमात्मा में विभाव है ही नहीं; इसलिए उसकी चिन्ता परमात्मा में नहीं। ऐसे आत्मा को अनुभव करनेवाले धर्मी कहते हैं कि अहा! हमारा ऐसा परमात्मतत्त्व! उसमें विभाव है ही कहाँ-कि उसे मिटाने की चिन्ता करें? हम तो विभाव से पार ऐसे हमारे इस परमतत्त्व का ही अनुभव करते हैं। ऐसी अनुभूति ही मुक्ति को स्पर्श करती है; इसके अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है। जो शुद्ध परमतत्त्व है, उसके अनुभव में तो ज्ञान-दर्शनचारित्र-आनन्द सब समाहित हो जाता है, परन्तु मैं ज्ञान हूँ-मैं दर्शन Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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