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________________ www.vitragvani.com 14] [ सम्यग्दर्शन : भाग-5 हूँ-मैं चारित्र हूँ –ऐसे विकल्पों का परम तत्त्व में प्रवेश नहीं है। इसलिए आत्मा को ज्ञान-दर्शन- चारित्र के भेद से कहना, वह भी व्यवहार है । ऐसे व्यवहार के आश्रय से विकल्प होता है, शुद्धतत्त्व अनुभव में नहीं आता। अभेद के आश्रय से शुद्धतत्त्व का निर्विकल्प अनुभव होता है I जिसने अभी स्वभाव का अनुभव नहीं किया परन्तु अनुभव करने के लिये जो एकदम तैयार हुआ है - ऐसे 'निकटवर्ती शिष्य को' अभेद समझाते हुए बीच में भेद आ जाता है । शिष्य कैसा है ? - निकटवर्ती है । उसमें दो प्रकार ★ एक तो स्वभाव के समीप आया हुआ है और अब निकट में ही स्वभाव का अनुभव करनेवाला है, इसलिए निकटवर्ती है। ★ दूसरा, समझने की धगशपूर्वक ज्ञानी गुरु के निकट आया है, इसलिए निकटवर्ती है । - इस प्रकार भाव से और द्रव्य से दोनों प्रकार से निकटवर्ती है। स्वभाव की बात सुनने पर भड़ककर दूर नहीं भागता परन्तु स्वभाव की बात सुनने को प्रेम से समीप आता है और सुनकर उसकी रुचि करके स्वभाव में निकट आता है। ऐसा निकटवर्ती शिष्य, व्यवहार के भेद कथन में न अटककर, उसका परमार्थ समझकर, आत्मा के स्वभाव का अनुभव कर लेता है । कैसा अनुभव करता है ? अनन्त धर्मों को जो पी गया है और जिसमें अनन्त धर्मों का स्वाद परस्पर किंचित् मिल गया है - ऐसे एक अभेदस्वभावरूप धर्मी अपने को अनुभव करता है; दर्शन-ज्ञान -चारित्र के भेद को वह अनुभव नहीं करता। ऐसा अनुभव करने Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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