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________________ www.vitragvani.com 12] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 है। लोग कहते हैं कि व्यवहार छोड़ने को अभी मत कहो । यहाँ तो कहते हैं कि उसे शीघ्र तजो। जितने परद्रव्याश्रित भाव हैं, वे सब शीघ्र छोड़नेयोग्य हैं-ऐसा लक्ष्य में तो अभी लो। हे जीव! अन्तर में आनन्द का सागर तेरा आत्मा कैसा है, उसे खोज। स्वद्रव्य को छोड़कर परद्रव्य में रमना, तुझे शोभा नहीं देता, उसमें तेरा हित नहीं है। अन्तर्मुख होकर स्वद्रव्य में रमण कर... उसमें तेरा हित और शोभा है। वही मोक्ष का मार्ग है। मोक्ष को साधने के लिये, हे मुमुक्षु ! तू शीघ्र ऐसा कर।. भगवान और भक्त सर्वज्ञ भगवन्तों का ज्ञान और सुख, अतीन्द्रिय है-ऐसा पहचाननेवाले को अपने में ही अतीन्द्रियज्ञान और सुख हुआ है और उसके बल से ही उसने सर्वज्ञ के अतीन्द्रियज्ञान-सुख का निर्णय किया है। ___ अकेले इन्द्रियज्ञान और इन्द्रियसुख में ही खड़े रहकर अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख का निर्णय नहीं हो सकता। भगवान और भक्त एक जाति के हुए, तब ही भगवान की पहिचान हुई... भगवान की वास्तविक पहिचान होने पर, जैसे ज्ञानआनन्द भगवान के पास है, उसका नमूना स्वयं को प्राप्त हुआ... भगवान और भक्त के बीच ऐसी सन्धि है। -- मेरा प्रभु मुझे प्रभुजी जैसा बनावे। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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