________________ www.vitragvani.com 196] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 मैं तो ज्ञातादृष्टा हूँ (आत्मभावना) अनन्त द्रव्य जगत में बसते..... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। निज स्वरूप में सदा ही रहता.... मैं तो आतमराम हूँ। पररूप तो कभी न होता....मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। स्वयं परिणामी निजभाव से.... मैं तो आतमराम हूँ। नहीं परिणमाता किसी को.... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। स्व-पर तत्त्व का ज्ञायक ऐसा....मैं तो आतमराम हूँ। परिणति को निज में झुकाकर.... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। इष्ट अनिष्ट संयोग-वियोग.... मैं तो आतमराम हूँ। देहादि से भिन्न सदा ही.... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। रागादिक परभाव भिन्न.... मैं तो आतमराम हूँ। ज्ञायकभाव की श्रद्धा करता.... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। परम सुन्दर निजरूप देखता.... मैं तो आतमराम हूँ। आनन्द रस में तन्मय रहता.... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। निज अनन्तगुण में बसता.... मैं तो आतमराम हूँ। गुण-गुणी में भेद न देखू... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। ज्ञेय ज्ञान ज्ञातारूप एक ही.... मैं तो आतमराम हूँ। सिद्धस्वरूपी आतमरामी.... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। मधुर चैतन्यरस का स्वादी.... मैं तो आतमराम हूँ। निज उपयोग से सदा ही जीता.... मैं तो ज्ञाता-दृष्टा हूँ। परम पारिणामिकस्वरूपी.... मैं तो आतमराम हूँ। cohoadhoodhoodhcho Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.