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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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अच्छा मनुष्य, जेल में रहना पड़े, उसे अच्छा नहीं मानता; वैसे धर्मात्मा को राग-द्वेष-पुण्य-पाप जेल जैसे लगते हैं; परभाव में गृहवासरूपी असंयम की जेल में धर्मीजीव आनन्द नहीं मानता परन्तु उनसे छूटना चाहता है। सम्यग्दर्शन होने पर मुक्ति के स्वाद का नमूना तो चख लिया है, इसलिए राग के रस में उसे कहीं चैन नहीं पड़ता।
सदन निवासी तदपि उदासी तातैं आस्रव छटाछटी, संयम धर्म सके पै संयम धारण की उर चटाचटी॥
सम्यग्दृष्टि की ऐसी अलौकिक दशा है। शास्त्रों में पेट भरभरकर सम्यग्दर्शन की महिमा गायी है । सम्यग्दर्शन में सम्पूर्ण आत्मा का स्वीकार है। सम्यग्दर्शन सर्वोत्तम सुख का कारण है, वही धर्म का मूल है। समन्तभद्र महाराज कहते हैं कि -
तीन काल अरु त्रिलोक में सम्यक्त्वसम नहीं श्रेष्ठ है, मिथ्यात्वसम अश्रेय को नहीं, जगत में इस जीव के॥
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