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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
सम्यग्दृष्टि असंयमी हो, विषय-कषाय के भाव होते हों, तथापि उसे अशुभ के समय आयु नहीं बँधती; शुभ के समय ही बँधती है, क्योंकि उत्तम आयु ही बँधती है; परिणाम की मर्यादा ही ऐसी है। उत्तमदेव या मनुष्य में जाये, वहाँ भी सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्दृष्टि में अपने शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्य सबसे अलिप्त ही रहता है; देवलोक के वैभव के बीच भी वह आत्मा को भूलता नहीं है।
देह-मन-वाणी, कर्म, पुण्य-पाप, राग-द्वेष, स्त्री, व्यापार इत्यादि होने पर भी, उसके सामने एक सम्पूर्ण चिदानन्द तत्त्व भी विद्यमान है; उन देहादि सबसे पार चिदानन्दतत्त्व ही मैं हूँ-ऐसा धर्मी को भान है। बाहर में सब होने पर भी, मेरे तत्त्व में वे कोई नहीं, मेरा तत्त्व उनरूप हुआ नहीं, सबसे न्यारा का न्यारा ही हैऐसी शुद्धदृष्टि रखकर व्यवहार को भी जैसा है, वैसा जानता है। रागादि और गृहवास है, उसे कहीं अच्छा नहीं मानता, उसे तो कीचड़ जैसा जानता है। अरे, मेरे शुद्धतत्त्व में से बाह्य विषयों में वृत्ति जाये, वह कीचड़ जैसी है; सर्वज्ञस्वभावी मेरे आत्मा को इस कीचड से शोभा नहीं है। सम्यग्दर्शन हो गया है। इसलिए अब चाहे जो वृत्ति आवे तो क्या बाधा? - ऐसा वह धर्मी नहीं कहता परन्तु जितनी विषय-कषाय की वृत्तियाँ हैं, उन्हें अपना दोष समझता है। जैसे रोगी को रोग का या औषध का प्रेम नहीं है, वह तो उसे मिटाना चाहता है। वैसे धर्मी को असंयम का या विषयों का प्रेम नहीं है, उन्हें तो वह छोड़ना चाहता है। इस प्रकार दोष को दोष जानता है और दोषरहित शुद्धतत्त्व को भी जानता है; इसलिए रागादिभाव होने पर भी, धर्मी जीव अन्तर से न्यारा है। अतीन्द्रिय आनन्दमय चैतन्यस्वभाव में राग को प्रविष्ट नहीं होने देता। जैसे
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