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________________ www.vitragvani.com 186] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 विषय-कषाय तो पाप है, धर्मी भी उन्हें पाप ही समझता है परन्तु उस समय धर्मी के अन्तर में जो सम्यग्दर्शन है, वह शुद्ध है, वह प्रशंसनीय है, वह मोक्ष का कारण है। उस सम्यग्दर्शन का भाव, विषय-कषायों से अलिप्त है। एकसाथ भिन्न-भिन्न दो धारायें चल रही हैं-एक सम्यक्त्वादि शुद्धभाव की धारा और दूसरी राग धारा । उसमें धर्मी को शुद्धभाव की धारा में तन्मयपना है और उसी के द्वारा धर्मी की सच्ची पहिचान होती है। अज्ञानी अकेली रागधारा को देखता है; इसलिए वह धर्मी को पहिचान नहीं सकता है। अहा! वीतरागी जैनमार्ग! उसका प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन, वह भी अलौकिक है। जैनमार्ग के अतिरिक्त अन्यत्र तो सम्यग्दर्शन होता नहीं; अन्य मार्ग की मान्यता तो गृहीत मिथ्यात्व है। धर्मी को ऐसे कुमार्ग का आदर नहीं होता। उसने तो चैतन्य के अनन्त गुण के रस से भरपूर अतीन्द्रिय आनन्द के अनुभवसहित आत्मा की प्रतीति की है। उसके साथ नि:शंकता आदि आठ भव होते हैं। उसे तीव्र अन्याय के कर्तव्य नहीं होते, माँस, अण्डा इत्यादि अभक्ष्य खुराक नहीं होती, महापाप के कारणरूप ऐसे सप्त व्यसन (शिकार, चोरी, जुआ, परस्त्री सेवन इत्यादि) उसे नहीं होते। अरे ! जिज्ञासु सज्जन को भी ऐसे पाप कार्य नहीं होते तो सम्यग्दृष्टि को तो कैसे होंगे? चौथे गुणस्थान में सम्यग्दृष्टि को भले संयमदशा नहीं है, तथापि उसे अलौकिक ज्ञान-वैराग्यदशा होती है; स्वरूप में आचरणरूप स्वरूपाचरण है; मिथ्यात्व या अनन्तानुबन्धी क्रोधादि उसे होते ही नहीं। अतीन्द्रिय आनन्द, धर्मी के ज्ञान में वर्तता है। इसलिए उसे अन्यत्र कहीं सन्तोष या आनन्द नहीं होता। विषयों की गृद्धि नहीं परन्तु उनका खेद है। धर्म के नाम से वह कभी Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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