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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [185 अन्य सबसे अलिप्त होती है। आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उसका मन स्थिर नहीं होता; आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु उसे नहीं रुचती, उसे सच्चा प्रेम और एकता आत्मा में ही है। पर के प्रति राग दिखायी दे परन्तु उसमें कहीं-पर में या राग में अंशमात्र सुखबुद्धि नहीं। राग और स्वभाव के बीच उसे बड़ी दरार पड़ गयी है, अत्यन्त भेद पड़ गया है, वह कभी एकता नहीं होती। राग और ज्ञान को वह भिन्न का भिन्न ही अनुभव करता है। ऐसी ज्ञानदशावन्त सम्यग्दृष्टि की महिमा अपार है। जैसे नारियल में अन्दर खोपरे का गोला काँचली से पृथक् ही है। इसी प्रकार धर्मात्मा के अन्तर में चैतन्य गोला, रागादि परभावों से भिन्न का भिन्न ही है; वह रागादिरूप नहीं होता, संयोग को अपने नहीं देखता; उनसे अपने को भिन्न ही देखता है। बड़ा चक्रवर्ती हो या छोटा मेंढ़क हो-सभी सम्यक्त्वियों की ऐसी दशा होती है। उन्होंने आकाश जैसा अलिप्त अपना आत्मस्वभाव जाना; इसलिए परभावों के प्रेम में वे लिप्त नहीं होते। गृहस्थपना है-परन्तु वह तो हाथ में पकड़े गये जहरीले सर्प जैसा है। जैसे हाथ में पकड़ा हुआ सर्प फेंक देने के लिये है, पोषण के लिये नहीं; उसी प्रकार धर्मी को असंयम के जो रागादि हैं, उसे वह सर्प समझकर छोड़ना चाहता है; उस राग को अपना समझकर पोषण के लिये नहीं है। अपने चैतन्यस्वभाव की अनुभूति से भिन्न जानकर अभिप्राय में तो उन समस्त परभावों को छोड़ ही दिया है कि ये भाव मैं नहीं । स्वानुभव द्वारा स्व-पर का विवेक हुआ है; इसलिए स्वतत्त्व में ही प्रीति है और उन पर की प्रीति छूट गयी है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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