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________________ www.vitragvani.com 184] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 श्री समन्तभद्रस्वामी, रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहते हैं कि भले ही चाण्डाल शरीर में उत्पन्न हुआ हो, तथापि जो जीव, सम्यग्दर्शन सम्पन्न है, उसे गणधरदेव 'देव' कहते हैं; भस्म से आच्छादित तेजस्वी अंगार की तरह वह जीव, सम्यक्त्व द्वारा शोभित है। सम्यग्दृष्टि तिर्यंचपर्याय में हो या स्त्रीपर्याय में हो, तथापि सम्यक्त्व के प्रताप से वह शोभा देता है। तिर्यंचपर्याय और स्त्रीपर्याय लोक में सामान्य से निन्दनीय है परन्तु यदि सम्यग्दर्शनसहित हो तो वह प्रशंसनीय है। उसने स्वानुभव द्वारा स्व-पर का विभाजन कर दिया है कि ज्ञानानन्दस्वरूप ही मैं, और शुद्धात्मा के विकल्प से लेकर पूरी दुनिया वह पर - ऐसी दृष्टि की अपार महिमा है, उसकी अपार सामर्थ्य है, उसमें अनन्त केवलज्ञान के पुंज आत्मा का ही आदर है। अहा! उसके अन्दर की परिणमन धारा में उसने आनन्दमय स्व-घर देखा है। वह अपने आनन्द घर में ही रहना चाहता है, राग को पर-घर मानता है, उसमें जाना नहीं चाहता। चैतन्यधाम, जहाँ कि मन लगा है, वहाँ से हटता नहीं और जहाँ से पृथक् पड़ा है, वहाँ जाना चाहता नहीं। आठ वर्ष की लड़की हो, सम्यग्दर्शन प्राप्त करे और उसके माता-पिता को पता पड़े तो वे भी कहते हैं कि वाह पुत्री! तेरे अवतार को धन्य है! तूने आत्मा का काम करके जीवन सफल किया। आत्मा में समकित दीपक प्रगटाकर तूने मोक्ष का पंथ लिया। उम्र भले छोटी हो, परन्तु आत्मा को साधे, उसकी बलिहारी है, वह जिनेश्वर भगवान का लघुनन्दन है। सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा की चेतना अपने आत्मा के अतिरिक्त Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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