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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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सम्यग्दृष्टि आत्मा के आनन्द में रहनेवाला है; जहाँ आत्मा के आनन्द का स्वाद चखा, वहाँ जगत् के विषयों का प्रेम उसे उड गया है; उसकी दशा कोई परम गम्भीर है, वह बाहर से नहीं पहिचाना जाता। अकेला चिदानन्दस्वभाव अनुभव करके जिसने भव का अभाव किया है, उस समकित की अचिन्त्य महिमा है। अनादि के दुःख का नाश करके अपूर्व मोक्षसुख को वह देनेवाला है। अनन्त काल में जो नहीं किया था, वह उसने किया ऐसे समकित का स्वरूप और उसकी महिमा तो अन्दर समाविष्ट होती है; कहीं देवों द्वारा पूजा के कारण उसकी महिमा नहीं है, उसकी महिमा तो अन्दर अपने आत्मा की अनुभूति से है। उस अनुभूति की महिमा तो वचनातीत है। ___ जिसे राग में एकत्व है-ऐसे मिथ्यादृष्टि-महाव्रती की अपेक्षा तो राग से भिन्न चैतन्य को अनुभव करनेवाले समकिती अव्रती भी पूज्य है-महिमावन्त है-प्रशंसनीय है। अहो! तुमने आत्मा का कार्य किया, आत्मा की अनुभूति द्वारा तुम भगवान के मार्ग में आये-इस प्रकार इन्द्र भी अपने साधर्मी के रूप में उसके प्रति प्रेम आता है। ऐसे मनुष्यदेह में पंचम काल की प्रतिकूलता के बीच भी तुमने आत्मा को साधा... तुम धन्य हो-ऐसा 'सूरनाथ जचे हैं' अर्थात् सम्यक्त्व का बहुमान करते हैं, अनुमोदन करते हैं, प्रशंसा करते हैं। श्री कुन्दकुन्दस्वामी जैसे वीतरागी सन्त भी अष्टप्राभृत में कहते हैं कि
सम्यक्त्व सिद्धि कर अहो स्वप्न में नहीं दूषित है, वह धन्य है, कृतकृत्य है शूरवीर पण्डित है।
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