SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [187 स्वच्छन्द का पोषण नहीं करता । असंयम है परन्तु कहीं स्वच्छन्द नहीं है। अरे! आत्मा के आनन्द का साधक तो जगत से उदास हुआ- उसे अब स्वच्छन्द कैसा ? पर्याय-पर्याय में उसका ज्ञान राग से भिन्न रहकर मोक्ष को साध रहा है और उसी में सच्चा वैराग्य है, जहाँ राग का कर्तृत्व ही उड़ गया, वहाँ उसका जोर टूट गया है; इसलिए असंयमदशा होने पर भी, कषायें मर्यादा में आ गयी हैं, उसके श्रद्धा-ज्ञान मलिन नहीं होते। ऐसा सम्यग्दर्शन जो जीव पाया, वह इन्द्र द्वारा भी प्रशंसनीय है। अहो! ऐसे निकृष्ट काल में भी अन्तर में उतरकर जो आत्मदर्शन को प्राप्त हुआ, वह धन्य है; वह तो आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द के दरबार में जाकर बैठा; पंच परमेष्ठी की जाति में मिला । वह सर्वज्ञ परमात्मा का पुत्र हुआ; शास्त्रों ने जिस चैतन्यवस्तु की अनन्त महिमा गायी है, वह चैतन्यवस्तु उसने अपने में प्राप्त कर ली, वह सुकृती है, जगत का उत्कृष्ट कार्य उसने कर लिया है, इसलिए वह धन्य है ... धन्य है ... धन्य है । 33 * जीव को सच्चा सन्तोष तभी होता है कि जब अपने परमतत्त्व को अपने में ही देखे और पर को अपने से भिन्न देखे। * हे जीव ! जिस कार्य को करने से तुझे आत्मा का आनन्द प्राप्त होता हो, उस कार्य को अभी कर ले; उसमें विलम्ब मत कर। Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy