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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
अन्तर में उद्यम द्वारा तू निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण कर । तूने चार गति के बहुत दुःख सहे हैं, अब उन दुःखों से छूटने के लिये आत्मा की यह बात सुन । सम्यग्दर्शन की ऐसी उत्तम बात सुनकर अब तू जागृत हो और तुरन्त सम्यग्दर्शन प्रगट कर। यह तेरा सम्हलने का काल है, सम्यग्दर्शन का अवसर है; इसलिए अभी ही सम्यग्दर्शन धारण कर !
देखो, कैसा सम्बोधन किया है ! भोगभूमि में ऋषभदेव के जीव को सम्यग्दर्शन के लिये उपदेश देकर मुनिराज ने भी ऐसा कहा था कि हे आर्य ! अभी ही तू इस सम्यक्त्व को ग्रहण कर । तुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति का यह काल है और वास्तव में उस जीव ने तत्क्षण ही सम्यग्दर्शन प्रगट किया। इसी प्रकार यहाँ भी कहते हैं कि हे भव्य ! विलम्ब किये बिना तू अभी ही सम्यक्त्व को धारण कर! और सुपात्र जीव अवश्य सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है ।
हे जीव! जितना चैतन्यभाव है, उतना ही तू है । अजीव से तेरा आत्मा भिन्न है, रागादि ममता से भी आत्मा का स्वभाव भिन्न है; इस आत्मा के भान बिना अनन्त काल व्यर्थ गँवाया, परन्तु अब यह उपदेश सुनने के बाद तू एक भी क्षण न गँवा । तुरन्त अन्दर में सम्यग्दर्शन का उद्यम करना । एक- एक क्षण अत्यन्त मूल्यवान है। उत्कृष्ट मणिरत्न से भी मनुष्यपना कीमती है और उसमें भी इस सम्यग्दर्शन रत्न की प्राप्ति महादुर्लभ है । अनन्त बार मनुष्य हुआ और स्वर्ग में भी गया परन्तु सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं हुआ— ऐसा जानकर अब तू व्यर्थ काल गँवाये बिना, सम्यग्दर्शन प्रगट कर । तू उद्यम कर, वहाँ तेरी काललब्धि आ ही गयी है। पुरुषार्थ से काललब्धि भिन्न नहीं है; इसलिए हे भाई ! इस
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