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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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अवसर में आत्मा को समझकर उसकी श्रद्धा कर ! अन्य व्यर्थ कार्यों में समय मत गँवा ।
पर के कार्य तेरे नहीं और परचीज़ तेरे काम की नहीं । आनन्दकन्द आत्मा ही तेरा है, उसे ही काम में ले - श्रद्धा - ज्ञान में ले । परचीज़ या पुण्य-पाप तेरे हित के काम में नहीं आते; तेरा ज्ञानानन्दस्वभाव श्रद्धा में ले, वही तुझे मोक्ष के लिये काम में आयेगा । समयसार में आत्मा को भगवान कहकर बुलाया है। जैसे माता पलना झूलाती है और लोरियाँ गाती है कि 'मेरा बेटा चतुर.... ' इसी प्रकार जिनवाणी माता कहती है कि हे जीव ! तू चतुर अर्थात् सयाना - समझदार है; इसलिए अब मोह छोड़कर तू जाग, चेत... और तेरे आत्मस्वभाव को देख । आत्मा के स्वभाव का सम्यग्दर्शन, वह मोक्ष का दाता है । सम्यग्दर्शन हुआ तो मोक्ष अवश्य होनेवाला है । तेरे गुण के गीत गाकर सन्त तुझे जगाते हैं.... और सम्यग्दर्शन प्राप्त कराते हैं । वाह ! ज्ञानी -सन्तों का कैसा अचिन्त्य अपूर्व उपकार है ।
आत्मा अखण्ड ज्ञान-दर्शन स्वरूप है, वह पवित्र है; पुण्यपाप तो मलिन हैं, स्व-पर को जानने की ताकत उनमें नहीं है और भगवान आत्मा तो स्वयं अपने को तथा पर को भी जाने - ऐसा चेतकस्वभावी है - ऐसे आत्मा के सन्मुख होकर उसकी श्रद्धा और अनुभव करने से जो सम्यग्दर्शन हुआ, उसका महान प्रताप है। सम्यग्दर्शन के बिना सब अंक के बिना शून्यवत् है; धर्म में उसकी कोई कीमत नहीं है । सम्यग्दृष्टि को अन्दर चैतन्य के शान्तरस का वेदन है । अहा ! उस शान्ति के अनुभव की क्या बात ! श्रेणिक राजा अभी नरक में होने पर भी, सम्यग्दर्शन के प्रताप से
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