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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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ज्ञान एकाकार वर्त रहा है, उन जीवों ने अतीन्द्रियसुख से भरपूर आत्मा की मित्रता छोड़ दी है और जड़ इन्द्रियों के साथ मित्रता की है। उन्हें इन्द्रियाँ जीवित हैं, परन्तु अतीन्द्रिय भगवान आत्मा तो मानो मर गया हो - ऐसा उन्हें दिखता नहीं । इन्द्रियाँ और उनके विषय ही उन्हें दिखते हैं परन्तु उनसे पार अतीन्द्रिय आनन्द का समुद्र उन्हें नहीं दिखता। अरे ! जहाँ सुख भरा है, वहाँ मित्रता नहीं करता और जहाँ एकान्त दुःख है, वहाँ मित्रता करने दौड़ता है ! ऐसे जीवों को श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं कि—
अनन्त सुख नाम दुःख वहाँ रही न मित्रता, अनन्त दुःख नाम सुख प्रेम वहाँ विचित्रता ! उघाड़ न्याय नेत्र को निहार रे निहार तू
निवृत्ति शीघ्रमेव धारि वह प्रवृत्ति बाल तू ॥
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अरे जीव! अनन्त सुख से भरपूर यह आत्मस्वभाव, इसकी आराधना में दुःख मानकर इसकी मित्रता तूने छोड़ दी परन्तु वास्तव में इसमें जरा भी दुःख नहीं है, अकेला अनन्त सुख भरा है-उसमें तू प्रीति क्यों नहीं करता ? और बाह्य विषय- कि जिसकी प्रीति में अनन्त दु:ख है, तथापि वहाँ सुख मानकर तू प्रेम करता है - यह आश्चर्य की बात है ! जिसमें सुख भरा है - ऐसे अपने सन्मुख तो देखता नहीं और जिसमें स्वप्न में भी सुख नहीं, उसमें प्रेम करता है - यह अज्ञान है । ऐसे अज्ञान को, हे जीव ! तू छोड़ ! और ज्ञाननेत्र को उघाड़कर देख... तुझमें ही सुख है, उसे देख... और बाह्य विषयों में सुखबुद्धि की विपरीत प्रवृत्ति को तू शीघ्र छोड़ ।
ज्ञानियों को चैतन्य के अतीन्द्रियसुख के समक्ष जगत् के कोई विषय रुचिकर नहीं लगते। शुभ या अशुभ कोई भी इन्द्रियविषयों
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