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________________ www.vitragvani.com 164] [ सम्यग्दर्शन : भाग-5 -सन्मुख होने के लिये पर के प्रति वैराग्यपरिणति होती है; उसके अन्तर में चैतन्य का रस बढ़ता जाता है और राग का रस घटता जाता है। ऐसा जीव, स्वरूप प्रगट करने के लिये सत्समागम से श्रुतज्ञान द्वारा आत्मा का निर्णय करने की ज्ञानक्रिया करता है । उसे कुदेव-कुगुरु-कुधर्म की ओर का आदर तथा उस ओर का झुकाव तो छूट ही गया है तथा विषयादि परवस्तु में सुखबुद्धि भी छूटती जाती है और चैतन्यसुख की मिठास भासित होती जाती है । इसलिए सब ओर से रुचि को हटाकर अपने स्वभावसन्मुख रुचि झुकाता है। वीतरागी देव- गुरु को भलीभाँति पहिचानकर, उनके द्वारा कथित आत्मस्वरूप का आदर करता है, उसे यह सब स्वभाव के लक्ष्य से हुआ होता है । उसे सत्देव-गुरु की ऐसी लगन लगी है कि सत्पुरुष मेरा स्वरूप क्या कहते हैं, वह समझने का ही लक्ष्य है । अहा! अल्प काल में मोक्ष जानेवाले आत्मार्थी जीव की ही यह बात है । सभी बात की हाँ-जी-हाँ भले परन्तु अन्दर एक भी बात का अपने ज्ञान में निर्णय करे नहीं - ऐसे अनिर्णयी - डाँवाडोल जीव, आत्मा को साध नहीं सकते। जैसे नाटक के प्रेमवाला जीव, नाटक में अपनी प्रिय वस्तु को बारम्बार देखता है, उसमें ऊँघता नहीं; वैसे ही जिस भव्य जीव को आत्मा प्रिय लगा है, आत्मा की रुचि हुई है और आत्मा का हित करने के लिये जागृत हुआ है, वह बारम्बार रुचिपूर्वक प्रत्येक समय सोते-बैठते, खाते-पीते, बोलते-चलते, पढ़ते-विचारते निरन्तर अत्यन्त प्रिय चैतन्यतत्त्व को ही देखने की ओर अनुभव करने की भावना करता है; स्वभाव की महिमा का लक्ष्य उसे एक Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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