________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-5]
[163
सम्यग्दर्शन बिना बारम्बार वह संसार चक्र में परिभ्रमण करता है। इसलिए हे जीव! तू ऐसा विचार कि अभी सम्यग्दर्शन पाकर भवभ्रमण के दुःख से छूटने का महान अवसर आया है तो इस अवसर में सर्व प्रकार से जागृत होकर मैं मेरा आत्महित कर लूँ। ___ आत्महित के मूलकारणरूप सम्यग्दर्शन, वह आत्मा के श्रद्धा -गुण की निर्विकारी शुद्धपर्याय है। अन्तर में अखण्ड आत्मतत्त्व जैसा है, वैसा लक्ष्यगत करने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। सम्यग्दर्शन को किसी विकल्प का अवलम्बन नहीं, किन्तु विकल्पातीत चैतन्यस्वभाव के अवलम्बन से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। यह सम्यग्दर्शन ही आत्मा के सर्व सुख का कारण है। मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, बन्धरहित हूँ'-ऐसे शुभरागमय विकल्प का अवलम्बन भी सम्यग्दर्शन में नहीं है; उस शुभविकल्प को अतिक्रमण करके ज्ञान-अनुभूति द्वारा आत्मा को पकड़ने से सम्यग्दर्शन होता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का स्वरूप क्या है-यह यथावत जानना चाहिए। देह की किसी क्रिया से तो सम्यग्दर्शन नहीं; शुभराग से भी सम्यग्दर्शन नहीं; मैं ज्ञायक हूँ, पुण्य-पाप से भिन्न हूँ - ऐसे विचार भी सम्यग्दर्शन कराने में समर्थ नहीं है। जो विचार में अटका, वह भेद के विकल्प में अटका है; उससे आगे बढ़कर स्वरूप का सीधा अनुभव और प्रतीति करना, वह सम्यग्दर्शन है। ___ -ऐसा अपूर्व सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये तैयारीवाले जीव की योग्यता भी जैसी-तैसी नहीं होती।अभी भले वह मिथ्यात्व में है, तथापि सामान्य मिथ्यादृष्टि से वह अलग है। सम्यग्दर्शन की तैयारीवाले जीव को कषायरस की अत्यन्त मन्दता तथा चैतन्य
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.