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________________ www.vitragvani.com 162] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 FD सान अत्यन्त प्रिय चैतन्यवस्तु की । अद्भुत महिमा चिन्तवन कर-करके अन्ततः उसका साक्षात् अनुभव करता है -[८] अहो! मेरी चैतन्यवस्तु की कोई अचिन्त्य-अपूर्व महिमा है; उसकी निर्विकल्प प्रतीति को किसी राग का अवलम्बन नहीं। शुभभाव पूर्व में अनन्त बार किये होने पर भी, यह चैतन्यवस्तु लक्ष्य में नहीं आयी; इसलिए उस समस्त राग से पार चैतन्यवस्तु कोई अन्तर की अद्भुत चीज़ है-जिसकी सन्मुख के विचार भी आकर शान्ति प्रदान करते हैं, तो उस वस्तु के साक्षात् वेदन की क्या बात? जीव अनादि काल से अपने स्वरूप को भूलकर संसार में भटक रहा है। जीव को धर्म प्राप्त करने का मुख्य अवसर मनुष्यपने में है। मनुष्य होकर भी यदि जीव धर्म समझे तो ही सुखी होता है और उसका दुःख मिटता है। अरे! मनुष्यभव प्राप्त करके भी बहुत से जीव तो धर्म की जिज्ञासा भी नहीं करते। कदाचित् जिज्ञासा करे तो अनेक प्रकार के मिथ्यामार्ग में धर्म मानकर, मिथ्या मान्यता से धर्म के बहाने भी अधर्म का ही सेवन करते हैं और कुदेव-कुगुरु -कुधर्म में ही फँसे रहते हैं अथवा तो सभी धर्म समान हैं'-ऐसा मानकर सत्-असत् के बीच विवेक नहीं करते और उल्टे ऐसी अविवेकी बुद्धि को विशालबुद्धि मानकर वे असत् मार्ग को ही दृढ़ करते हैं। कभी महाभाग्य से जीव को सुदेव-सुगुरु और सुशास्त्र मिले तथा उनका बाह्यस्वरूप समझा, तथापि स्वयं का वास्तविक स्वरूप न समझे, तब तक उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता; और Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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