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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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ऐसा भाव वर्तता है क्योंकि जहाँ आत्मा में से आनन्दरस की छूट पी हो, वहाँ जगत में दूसरा कोई इष्ट कहाँ से लगेगा? बस! आत्मा की धुन ऐसी लगी है कि कब उसमें विशेषरूप से लीन होऊँ! ऐसी ही भावना घुला करती है। शुभ-अशुभ परिणाम में उपयोग जाता होने पर भी, उससे पार ज्ञानदशा जिसे निरन्तर वर्ता करती
है
उन ज्ञानी के चरण में वन्दन हो अगणित।
ॐ
प्रभु का मारग है शूरवीर का श्रीगुरु शिक्षा देते हैं कि हे भव्य! आत्मा का अनुभव करने के लिये सावधान होना... शूरवीर होना... जगत की प्रतिकूलता देखकर कायर मत होना... प्रतिकूलता के सामने नहीं देखना, शुद्ध आत्मा के आनन्द के समक्ष देखना। शूरवीर होकर, उद्यमी होकर आनन्द का अनुभव करना 'हरि का मारग है शूरों का...' वह प्रतिकूलता में या पुण्य की मिठास में कहीं नहीं अटकता, उसे एक अपने आत्मार्थ का ही कार्य है। वह भेदज्ञान द्वारा आत्मा को बन्धन से सर्वथा प्रकार से भिन्न अनुभव करता है। ऐसा अनुभव करने का यह अवसर है। भाई! उसमें शान्ति से तेरी चेतना को अन्तर में एकाग्र करके त्रिकाली चैतन्यप्रवाहरूप आत्मा में मग्न कर... और रागादि समस्त बन्धभावों को चेतन से भिन्न अज्ञानरूप जान। ऐसे सर्व प्रकार से भेदज्ञान करके तेरे एकरूप शुद्ध आत्मा को खोज। मोक्ष को साधने का यह अवसर है।
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