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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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क्षण भी नहीं छूटता, उसके लिये कोई काल की या क्षेत्र की मर्यादा नहीं करता। चाहे जहाँ और चाहे जब इसी वस्तु की महिमा वर्तती है। सच्चे तत्त्व की रुचि के कारण उसे दूसरे कार्यों की प्रीति गौण हो जाती है और एक आत्मा का अनुभव करनेरूप कार्य को ही मुख्य गिनकर उसमें सर्वशक्ति को जोड़ता है। अरे ! ऐसे जीव को विषय-कषाय का रस कहाँ से रहे? कुदेवादि के प्रति राग और विषय-कषायों का तीव्र अशुभराग टालकर, सच्चे देव-गुरु के प्रति भक्ति आदि का शुभराग करने का भी जिस जीव को ठिकाना नहीं, वह जीव अत्यन्त रागरहित आत्मस्वरूप का अनुभव किस प्रकार करेगा? वीतरागी चैतन्यतत्त्व की ओर ढलने के लिये उद्यमी जीव को सहज तीव्र विषय-कषाय छूटकर परिणाम एकदम शान्त होते जाते हैं।
सम्यक्त्वसन्मुख हुए उस जीव को अपनी पर्याय में पामरता भासित होती है और स्वभाव की कोई अचिन्त्य महिमा भासित होती है... वह स्वभाव को पकड़ने के लिये एकान्त में शान्तचित्त से बारम्बार अन्तर्मन्थन करता है-अहो! मेरी चैतन्यवस्तु की कोई अचिन्त्य-अपूर्व महिमा है; उसकी निर्विकल्प प्रतीति को किसी राग का अवलम्बन नहीं; शुभभाव पूर्व में अनन्त बार किये, तथापि यह चैतन्यवस्तु लक्ष्य में नहीं आयी; इसलिए उस समस्त राग से पार चैतन्यवस्तु कोई अन्तर की अद्भुत चीज़ है कि जिसकी सन्मुख के विचार भी ऐसी शान्ति देते हैं, तो उस वस्तु के साक्षात् वेदन की क्या बात ! -ऐसे अत्यन्त चाहनापूर्वक चैतन्यवस्तु को पकड़ने का उद्यमी वर्तता है... और परिणाम को शान्त करके आत्मा में एकाग्र करता है-यह सम्यग्दर्शन की पद्धति है।
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