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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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विशुद्धता द्वारा तुरन्त वापस मुड़ जाता है। वह अभी व्यापार इत्यादि सम्बन्धी कार्यों में जुड़ा हुआ होने पर भी, उसके भाव दूसरे जीवों से अलग होते हैं। किसी भी बाहर के विषय में या कौतुहल में उसकी वृत्तियाँ उछाला नहीं मारती, क्योंकि बाहर के विषयों के प्रति जो लोलुपता या तीव्रता थी, वह अब चैतन्य प्रेम द्वारा अन्दर के मार्ग में चढ़ने से बहुत घट गयी है। संसार की या संसार के संयोगों की अभिलाषा छूटकर महा आनन्दरूप मोक्ष की अभिलाषा मुख्य हो गयी है। मोक्ष अर्थात् आत्मा का सम्पूर्ण सुख; उसकी ही भावना रहा करती है। ऐसा ही हुआ करता है कि बाहर में अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। अनन्त काल बाहर के भाव किये परन्तु मुझे जरा भी सुख नहीं मिला, मुझे तो मेरा सच्चा सुख चाहिए है क्योंकि अपूर्व सुख मिले और अनादि का दुःख कैसे मिटे?-इसका ही विचार मुझे करना है। अनन्त काल से भवभ्रमण में भटक-भटककर मैंने अनन्त दुःख भोगे हैं; अब मैं थका हूँ, उकताया हूँ, अब यह दु:खी संसार या इसके कारणरूप परभाव मुझे नहीं चाहिए, परन्तु सच्चा मोक्षसुख ही चाहिए। ऐसे-ऐसे अनेक प्रकार के सच्चे भाव की श्रेणी में चढ़ने पर उस मुमुक्षु जीव के वर्तन में जगत के जीवों से सहज अन्तर पड़ जाता है।
उस आत्मसन्मुख जीव को प्रथम सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के प्रति अनन्य बहुमान-भक्ति और अर्पणता के इतने तीव्र भाव होते हैं कि अन्य मिथ्यादृष्टि जीव करोड़ों की सम्पत्ति अर्पण करे, तथापि यह जीव जैसी अर्पणता के भाव नहीं ला सकता। परम महिमावन्त चैतन्यतत्त्व बतलानेवाले देव-गुरु के प्रति उसे नि:शंकता आ गयी है; इसलिए उनसे चैतन्य का जो उपदेश सुनने को मिलता
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