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________________ www.vitragvani.com 156] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 है, वह देशना अन्दर उतरते हुए ज्ञान में आर-पार उतरकर अपना कार्य कर लेती है। जीवादि छह द्रव्य तथा नवतत्त्व की यथार्थता और स्वतन्त्रता उस जीव के विचार में ऐसी बैठ गयी है कि उसमें कहीं घोटाला उत्पन्न नहीं होता; इसलिए एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य के साथ मिलावट नहीं करता। अभी सम्यक् परिणमन न हुआ होने पर भी, विचार में स्वतन्त्रता भलीभाँति समझ में आ गयी है और पर से भिन्नता के भाव की दृढ़ता बढ़ती जाती है, चैतन्य का प्रेम बढ़ता जाता है। इस प्रकार भेदज्ञान का भाव जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे आकुलता कम होती जाती है और शान्ति-धीरज बढ़ते ही जाते हैं। वह ऐसा विचार करता है कि अरे! बाहर में या शरीर में मेरा चाहा नहीं होता और हो तो भी मुझे क्या? वे मुझसे भिन्न हैं; फिर किसलिए मुझे उनके प्रति कर्तापने का मिथ्यात्वभाव करकरके दु:खी होना?-मैं तो ज्ञान हूँ; इस प्रकार विचारकर अकर्ता स्वभाव के सन्मुख अर्थात् ज्ञातास्वभाव के सन्मुख होने का विशेष प्रयत्न और पुरुषार्थ बढ़ाता जाता है। नवतत्त्व सम्बन्धी विचार में उसे प्रत्येक तत्त्व का ज्ञान इतना अधिक स्पष्ट और दृढ़ हो गया है कि उसमें अब भूल नहीं होती; मूल दो तत्त्व, और बाकी के पर्यायरूप सात तत्त्व, इनका यथावत् ज्ञान वर्तता है। शुभ-अशुभभावों का किस तत्त्व में समावेश होता है और धर्मदशा का किस तत्त्व में समावेश होता है, इसकी भिन्नता को भलीभाँति जानता है और अपने मूलतत्त्व को ज्ञान में नितार लेता है। मैं स्वयं शुद्ध जीवतत्त्व उपादेयरूप कैसा हूँ? कितना Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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