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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
| सम्यक्त्वसन्मुख जीव की अद्भुत दशा, R प्रभात हुआ है... अभी जलहलता सूर्योदय होगा।
_ -[७]आहा...हा...! अभी जहाँ जलहलता सूर्य का प्रकाश नहीं हुआ परन्तु प्रात: काल की भोर हुई है, दिशायें खुल गयी हैं और अभी ही अन्धकार के बादल को भेदकर सूर्य का प्रकाश दसों दिशाओं को प्रकाशित करेगा-उस दशा की क्या बात ! सम्यग्दर्शन वस्तु ही इतनी अलौकिक और गूढ़ातार्थ भाववाली है कि उसका वर्णन क्या करना और क्या न करना!! उसके गम्भीर भाव घूटते रहते हैं। सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य अभी उदित नहीं हुआ है परन्तु उसके सन्मुख हुए जीव का वर्तन अन्य मिथ्यात्वी जीवों से बहुत अलौकिक होता है; उस जीव को आत्मा के प्रेम के साथ सरलता, कषाय की मन्दता, मोक्ष-अभिलाषा, सच्चे देव -गुरु-शास्त्र के प्रति अनन्य भाव, इत्यादि भाव दूसरों से अलग प्रकार के होते हैं।
कषाय की उपशान्तता, मात्र मोक्ष अभिलाष भव में खेद अन्तरदया, वहाँ आत्मार्थ निवास।
- श्रीमद् राजचन्द्रजी ने इस गाथा में आत्मार्थी जीव की दशा बतायी है। उसे परिणाम में इतनी अधिक मन्दता-शान्तपना -गम्भीरता होती है कि वह अन्दर ही अन्दर उतरता जाता है। कषाय का उग्रपना उसे नहीं आ जाता। एकदम शान्ति और धीरजता से वह मूलमार्ग पर कदम बढ़ा रहा है। इस कारण परिणाम में चपलता बहुत कम होती है-कभी हो जाती है तो भी भाव की
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