________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-5]
[151
हैं; अथवा इस भव के संस्कार लेकर जहाँ जाये वहाँ पाते हैं। नरक-तिर्यंच में भी कोई जीव पूर्व के संस्कार जागृत करके सम्यक्त्व पा जाता है। मूल तो अन्तर में स्वरूपसन्मुख होने का अभ्यास ही सम्यग्दर्शन का कारण है। __ शुद्धोपयोग चौथे गुणस्थान में किसी समय ही होता है और थोड़े ही काल रहता है परन्तु उसे जो शुद्धात्मप्रतीति हुई है, वह तो निरन्तर चालू ही रहती है। शुद्धोपयोग के अतिरिक्त काल में आत्मप्रतीतिपूर्वक स्वाध्याय-मनन-जिनपूजा-गुरुसेवा इत्यादि शुभप्रवृत्ति में वर्तता है तथा गृह सम्बन्धी व्यापारादि कार्यों में भी वर्तता है परन्तु उसकी दृष्टि में आया हुआ आत्मतत्त्व तो उस समस्त राग से पृथक् का पृथक् ही रहता है। ऐसे सम्यग्दर्शन के लिये उद्यमी जीव सच्ची धगश से उसके प्रयत्न में लगा रहता है। कदाचित् सम्यग्दर्शन जल्दी न हो तो अधिक से अधिक प्रयत्न करता है, परन्तु उसमें थकता नहीं है तथा आकुल-व्याकुल बनकर प्रयत्न छोड़ नहीं देता परन्तु धीरज से, उत्साह से अपना महान कार्य साधने का उद्यम किया करता है और उसे साधकर ही रहता है।
सम्यग्दर्शन होने पर, देव-गुरु-शास्त्र की सच्ची पहिचान हुई होने से, उनकी उपासना में परम प्रमोद और भक्ति आती है। साधर्मी के प्रति गहरा वात्सल्य, धर्म प्रभावना और दानादि भी करता है। चैतन्यतत्त्व की गम्भीर महिमा का बारम्बार परम प्रेमपूर्वक गहरा घोलन करने से उसे आनन्द होता है, उसमें जितने राग के अंश हैं, उन्हें रागरूप ही गिनकर, ज्ञान से भिन्न जानता है और इस कारण उनका कर्ता नहीं बनकर, ज्ञायकभावरूप ही रहता है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.