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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
जैसे राजा इत्यादि पुण्यवन्त पुरुष जहाँ पधारें, वह घर तो सुन्दर होता है और उसका आँगन भी साफ होता है; इसी प्रकार तीन लोक में श्रेष्ठ ऐसे सम्यग्दर्शन राजा जिसके अन्तर में पधारे, उसके अन्तर में स्वघर की शुद्धता की क्या बात ! उसमें तो शुद्ध चैतन्य परमात्मा विराज रहे हैं और उनका आँगन अर्थात् बाह्य व्यवहार भी चुस्त होता है; सम्यग्दृष्टि के शुभपरिणाम भी दूसरों से अलग जाति के होते हैं । तीव्र कलुषता का उसे अभाव होता है।
जैसे बालक को शक्कर का स्वाद मीठा लगने से उसे बारम्बार शक्कर खाने की इच्छा होती है; इसी प्रकार सम्यग्दर्शन द्वारा एक बार चैतन्य के अतीन्द्रिय आनन्द का मीठा स्वाद चखने के पश्चात् धर्मी को बारम्बार वह आनन्द अनुभव करने का मन होता है; वह अपने उपयोग को बारम्बार आत्मसन्मुख झुकाना चाहता है। आत्मा के आनन्द के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उसका चित्त स्थिर नहीं होता। सहजानन्दी ज्ञायक आत्मा की रमणता में मस्त रहने के अतिरिक्त दूसरी कोई आकाँक्षा उसे नहीं है। संसार के बाह्य विषयों में या परभाव में उसे चैन नहीं पड़ता। ज्ञान समुद्र में से आत्मज्ञान का अमृत पिया, उसे ही अधिक से अधिक पीने की पिपासा है। अन्तर में ज्ञान... ज्ञान... ज्ञान..., आनन्द... आनन्द... आनन्द... ही मेरा स्वरूप है, वही मैं हूँ-ऐसी झंकार बजा करती है। राग और विकल्प आवे तो उसे हमेशा ज्ञान से बाहर ही रखता है। उसे विकल्प का वेदन दुःखरूप लगता है। विकल्पों को अपना स्वरूप नहीं मानता; इसलिए उन विकल्पों से हटकर अपनी शान्त चेतना का आश्रय लेता है।
- बाहर में व्यापार-धन्धा इत्यादि करता हुआ ज्ञात होता है,
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