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________________ www.vitragvani.com 150] [सम्यग्दर्शन : भाग-5 हर्ष और उत्साह है। स्व-कार्य साधने के लिये वह उत्साहपूर्वक प्रयत्न करता है, उसमें प्रमाद नहीं करता। तत्त्वविचार के उद्यम द्वारा उसे स्व-पर की स्पष्ट भिन्नता भासित होती है और स्वसंवेदनपूर्वक केवल अपने ज्ञानमय आत्मा में ही 'यह मैं हूँ' ऐसी अहंबुद्धि हो, तब वह जीव सम्यग्दृष्टि होता है। पहले जैसे शरीर में मिथ्या अहंबुद्धि थी कि 'मनुष्यादि मैं ही हूँ', वैसे अब देह से भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मा में स्वानुभवपूर्वक ऐसी सम्यक् अहंबुद्धि हुई कि 'यह चैतन्यरूप अनुभव में आता हुआ आत्मा ही मैं हूँ।' सम्यग्दर्शन होने पर, अन्तर में ज्ञान की अनुभूतिपूर्वक आत्मा के आनन्द का वेदन हो जाता है। जब तक ऐसा अनुभव न हो, तब तक गहरे तत्त्वविचार का उद्यम किया ही करे-यह जीव का कर्तव्य है और वहाँ कर्म के स्थिति-अनुभाग इत्यादि में भी सम्यक् होने के योग्य फेरफार स्वयमेव हो जाता है। देह से भिन्न चैतन्यमय मेरा अस्तित्व-वस्तुत्व इत्यादि अनन्त शक्तियाँ मुझमें रही हुई हैं; ज्ञान-आनन्दरूप परिणमन करना, वह मेरा स्वभाव है। जड़ के किसी भी परिणामरूप मैं नहीं होता, इसलिए मैं उसका कुछ नहीं कर सकता। ऐसी विचारधारा से पर के प्रति रस उड़ जाता है और चैतन्य की तरफ का रस बढ़ता जाता है। मैं असंख्य प्रदेशी एक अखण्ड पदार्थ हूँ और मुझे दर्शन-ज्ञानआनन्द इत्यादि अनन्त गुण सर्व प्रदेश में ओतप्रोत होकर रहे हुए हैं, वे ही श्रद्धा-ज्ञान-सुख पर्यायरूप होते हैं। उनका कर्ता आत्मा ही है-ऐसे आत्मा के स्वभाव को जानता है और उसके ध्यान का अभ्यास करता है। ऐसे अभ्यास द्वारा वह सम्यक्त्वसन्मुख जीव थोड़े काल में सम्यग्दर्शन पाता है; कोई-कोई इस भव में ही पाते Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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