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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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बढ़ता जाता है; अभी वास्तव में शान्ति नहीं मिली होने पर भी, शान्ति लगती है । जैसे प्यासे जीव को पानी मिलने से पहले भी सरोबर के किनारे आने पर पानी की ठण्डक का वेदन होता है; उसी प्रकार सम्यक्त्वसन्मुख जीव, शान्ति के समुद्र के किनारे आया हुआ है, उसे उस प्रकार की शान्ति अपने में दिखती है I जैसे-जैसे चैतन्य की महिमा भासित होती जाती है, वैसे-वैसे जगत के पदार्थों के प्रति वह उदासीन होता जाता है । मुझे इस जगत से कुछ काम नहीं और मैं भी इस जगत को कुछ कर दूँऐसा नहीं। इस जगत के लिये मैं, और मेरे लिये यह जगत् कुछ भी कार्यकारी नहीं है - ऐसे वैराग्य- विचार द्वारा पर से भिन्नता जानकर वह अपने आत्मा को साधने की ओर ढलता है ।
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आत्मा का स्वरूप क्या, लक्षण क्या और कार्य क्या यह मुमुक्षु जीव निर्णय करता है। मेरे आत्मा के आश्रय से ही मुझे सुख होगा - ऐसा उसे ख्याल में आता है । तत्पश्चात् वह चिन्तन-मनन द्वारा गुरु-उपदेश के साथ अपने विचारों की तुलना करता है; उपदेशानुसार वस्तु उसे अपने में भासित होती जाती है। ज्ञानादि स्वगुणों से पूरा और अन्य सर्व पदार्थों से भिन्न, कर्म - नोकर्म से पृथक्, रागादि विकारीभावों से भी भिन्न जाति का ऐसा आत्मस्वभाव, शुद्ध चैतन्य -आनन्दकारी अनन्त चैतन्य लक्ष्मीवान मैं ही हूँ - ऐसे निजस्वरूप का निर्णय करके उसमें गहरा उतरता जाता है ।
– ऐसे जीव की विचारधारा प्रतिक्षण आत्मसन्मुख होती जाती है। शास्त्रवाँचन, गुरु-उपदेश तथा अन्तर में अपने ज्ञान-विचार के उद्यम द्वारा उसे अपना सम्यग्दर्शनरूपी कार्य करने का अत्यन्त ही
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