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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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आचरण, वे कोई सम्यग्ज्ञान आ सम्यक्चारित्र नहीं कहलाते; इसलिए वे मिथ्या हैं। अतः सम्यग्दर्शन ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का बीज है। राग से और बाहर के जानपने से सम्यग्दर्शन की जाति ही अलग है। सम्यग्दर्शन स्वयं सविकल्प
और निर्विकल्प - ऐसे दो भेदवाला नहीं है । सम्यक्त्व तो विकल्प से पार शुद्धात्मश्रद्धानरूप ही वर्तता है, वह कभी विकल्प को स्पर्श नहीं करता। सविकल्पदशा के काल में भी धर्मी का सम्यक्त्व तो विकल्परहित ही है।
जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट किया है और उस प्रकार से सम्पूर्ण स्वरूप का जो साधक हुआ है, वह किसी भी संयोग में भय से, लज्जा से या लालच से किसी भी प्रकार से असत् को पोषण देता ही नहीं। इसके लिये कदाचित् देह छूटने तक की प्रतिकूलता आ पड़े तो भी वह सत् से च्युत होता ही नहीं; आत्मस्वरूप को अन्यथा नहीं मानता और असत् का आदर नहीं करता। इस प्रकार स्वरूप के साधक नि:शंक और निडर होते हैं। सत्स्वरूप की श्रद्धा के जोर में और आत्मा की परम महिमा के समक्ष उसे कोई प्रतिकूलता है ही नहीं। यदि सत् से च्युत हो तो उसे प्रतिकूलता आयी कहलाये, परन्तु प्रतिक्षण जो सत् में विशेष दृढ़ता कर रहा है, उसे तो अपने अपरिमित पुरुषार्थ के समक्ष जगत् में कोई भी प्रतिकूलता नहीं है। वह तो अपने परिपूर्ण सत्स्वरूप के साथ अभेद हो गया, उसमें से उसे डिगाने को जगत् में कौन समर्थ है ? अहो! ऐसे सम्यग्दृष्टि को धन्य है... धन्य है।
सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञायकस्वभाव को ही स्वतत्त्वरूप से अनुभव
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