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[ सम्यग्दर्शन : भाग-5
नहीं है, तथा देह के साथ आत्मा को एकता का सम्बन्ध नहीं है; शरीर, आत्मा से छूट जाता है परन्तु ज्ञान कभी आत्मा से भिन्न नहीं पड़ता तथा राग छूटने पर भी आत्मा ऐसा का ऐसा रहता है परन्तु ज्ञान के बिना आत्मा कभी नहीं होता- ऐसे ज्ञानस्वरूप ही वह अपने को अनुभव करता है; इसलिए मरण इत्यादि सम्बन्धी सात भय उसे नहीं होते। देह छूटने का समय आने पर 'मैं मर जाऊँगा'ऐसा भय या शंका उसे नहीं होती । वह जानता है कि असंख्य प्रदेशी मेरा चैतन्यशरीर अविनाशी है, उसका कभी नाश नहीं होता। ज्ञानी या अज्ञानी दोनों की देह तो छूटती ही है, परन्तु ज्ञानी ने देह को भिन्न जाना है, इसलिए उसे चैतन्य के लक्ष्य से देह छूट जाती है, इसलिए उसे समाधिमरण है; अज्ञानी को आत्मा को भूलकर देहबुद्धिपूर्वक देह छूटती है, इसलिए उसे असमाधि ही है।
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चाहे जैसी प्रतिकूलता में भी ' मैं स्वयंसिद्ध चिदानन्दस्वभावी परमात्मा हूँ' – ऐसी निजात्मा की अन्तरप्रतीति धर्मी को कभी नहीं हटती । आत्मस्वभाव की ऐसी प्रतीति, वह सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दृष्टि को अतीन्द्रिय आत्मसुख का स्वाद आ गया है; इसलिए बाह्य विषयों के सुख-जो कि आत्मा के स्वभाव से प्रतिकूल है-उसमें उसे रस नहीं आता। धर्मी कदाचित् गृहस्थ हो, राजा हो, तथापि चैतन्यसुख के स्वाद से विपरीत ऐसे विषयसुखों में उसे रस नहीं है; अन्तर के चैतन्यसुख की गटागटी के समक्ष विषयसुखों की आकुलता उसे विष जैसी लगती है । इसलिये वह तो 'सदननिवासी तदपि उदासी' है।
सम्यग्दर्शन के बिना चाहे जितना जानपना या चाहे जैसे शुभ
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