SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-5] [143 है। वचन से पार और मन के विकल्पों से भी पार, अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप आत्मा, वह स्वभाव का विषय है। अहा! परम अचिन्त्य उसकी महिमा है, उसे तू अन्तर में नजर करके, उसमें उपयोग जोड़कर अनुभव में ले; तेरे अन्तरस्वभाव को देखने से तू निहाल हो जायेगा। अन्तर्मुख उपयोग द्वारा परमात्मा जैसे स्वरूप को लक्ष्य में लेकर धर्मी उसका चिन्तवन करता है; उस चिन्तवन में परम आनन्द का उत्पाद होता है और विकल्पों के कोलाहल का व्यय होता है। विकल्परहित आत्मस्वरूप है, वह विकल्प से अनुभव में नहीं आता। ऐसे विकल्पातीत परमात्मस्वभाव को साधने जो जीव जागृत हुआ, उस साधक की रुचि की झंकार कोई अलग ही प्रकार की होती है। राग की जाति से उसकी जाति अलग है। सम्यक्त्व के लिये प्रयत्नशील जीव का वर्तन कोई अलग ही प्रकार का होता है; उसके परिणाम शान्त होते हैं; धर्म सम्बन्धी बहुत नम्रता होती है, उसे कोई हठाग्रह नहीं होता, लोक भय नहीं होता, या लोकरंजन के लिये उसका जीवन नहीं होता; उसकी बाह्य वृत्तियाँ बहुत नरम हो जाती हैं । शान्तभाव और आत्मा की गहरी विचारणापूर्वक, आत्मा कैसे सधे-उसकी धुन में वह वर्तता है। सम्यग्दर्शन होने पर, आत्मा के भाव निर्मल होते हैं, उसके परिणाम अपने स्वभाव में गहराई में उतरे होते हैं। मैं पर से भिन्न, राग मेरा स्वभाव नहीं; ज्ञाता-दृष्टाभावरूप मैं हूँ - ऐसा निजस्वभाव का भान उसे वर्तता है। वह आत्मा जानता है कि मैं ज्ञान और आनन्दस्वरूप से शाश्वत् हूँ; इस जड़ शरीर के नाश से मेरा नाश Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy