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________________ www.vitragvani.com 146] [ सम्यग्दर्शन : भाग-5 करता हुआ उसका विस्तार करता है, और उसे अपनी पर्याय में प्रसिद्ध करता है। उसे आत्मशुद्धि की वृद्धि होती है, अशुद्धता की हानि होती है और कर्म छूटते जाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव का आत्मा शान्तरस का समुद्र है। जहाँ सम्यग्दर्शन हुआ, वहाँ ज्ञान दूज उदित हुई, वह बढ़कर केवलज्ञान - पूर्णिमारूप से अनन्त कला से खिल उठेगी। सम्यग्दर्शन होने पर धर्मी जीव अपने आत्मा को ऐसा अनुभव करता है कि – कैवल्य दर्शन - ज्ञान - सुख, कैवल्य शक्ति स्वभाव जो । 'मैं हूँ वही', यह चिन्तवन होता निरन्तर ज्ञानी को ॥ निजभाव को छोड़े नहीं, किञ्चित् ग्रहे परभाव नहीं । देखे व जाने 'मैं वही', ज्ञानी करे चिन्तन यही ॥ दृग्-ज्ञान लक्षण और शाश्वत्, मात्र आत्मा मम अरे ! । अरु शेष सब संयोग लक्षित, भाव मुझसे हैं परे ॥ ज्ञान-दर्शन लक्षण के अतिरिक्त दूसरे जो कोई संयोगाश्रित रागादिभाव हैं, वे मुझसे बाह्य हैं; मुझमें वे नहीं और उनमें मैं नहीं; मैं उनसे भिन्न शुद्धज्ञान-दर्शनमय हूँ; मेरा ज्ञान-दर्शन लक्षण शाश्वत् है और राग-द्वेषादि तो क्षणिक संयोगाश्रित भाव हैं, वे कहीं मेरे आत्म में से उत्पन्न हुए नहीं हैं; इसलिए वे मैं नहीं हूँ । सम्यग्दर्शन होने पर मेरे स्वरस का अपूर्व आनन्द अनुभव में आया, आत्मा की सहज शान्ति प्रगट हुई, आनन्द के समुद्र में आत्मा मग्न हुआ, अन्दर में आत्मशान्ति का अद्भुत - अपूर्व-अचिन्त्य वेदन हुआ, अन्तर में सुखमय अनन्त भावों के वेदने से सम्यग्दर्शन भरपूर है । Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007772
Book TitleSamyag Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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