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[सम्यग्दर्शन : भाग-5
धर्मी ऐसी भिन्नता जानता है; इसलिए अपने चैतन्यभाव में राग के किसी अंश को वह मिलाता नहीं है।
सुख चैतन्यस्वभाव में है, उसे जाने / अनुभव करे तो ही चैतन्यसुख का स्वाद आवे और तभी रागादि का कर्तृत्व छूटे। सम्यग्दृष्टि की दशा ऐसी होती है। जो राग का कर्ता होगा, वह रागरहित चैतन्य का स्वाद नहीं ले सकेगा और रागरहित चैतन्य का स्वाद जिसने चखा, वह कभी राग का कर्ता नहीं होगा। एक सूक्ष्म विकल्प के स्वाद को भी वह ज्ञान से भिन्न ही जानता है; इसलिए कहा है कि -
करे करम सोही करतारा, जो जाने सो जाननहारा; जाने सो करता नहीं होई, कर्ता सो जाने नहीं कोई। - ऐसे समकिती सन्त, जगत् में सुखिया हैं। उन्हें नमस्कार हो।
(एक मुमुक्षु)
इस जीव को अपने शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति से जो सन्तोष होता है, वैसा सन्तोष इस जगत में कल्पवृक्ष-चिन्तामणि-कामधेनु-अमृत या इन्द्रपद इत्यादि किसी भी पदार्थ की प्राप्ति से नहीं होता है।
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