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सम्यग्दर्शन : भाग-5]
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GAON
Wolya
परमात्मस्वरूप का आह्वान करता
सम्यग्दर्शन प्रगट होता है धर्मी जीव किसी भी संयोग में आत्मस्वरूप को
अन्यथा नहीं मानता
-[५]सम्यग्दर्शन के लिये आत्मसन्मुख मुमुक्षु जीव के भाव विशुद्ध होते जाते हैं; आत्मस्वरूप समझानेवाले सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति उसे प्रेम जागृत होता है, धर्मात्मा को देखकर प्रमोद आता है। उसकी विचारधारा आत्मा के स्वभाव की ओर ढलती है। स्वयं अपने ज्ञायकस्वभाव की महिमा लक्ष्य में लेता है। अपने चैतन्य -स्वभावी आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द के विचारों में चित्त रमने से उसे विकल्पों का रस कम होता जाता है। मैं ज्ञानस्वभावी हूँ, राग मुझसे भिन्न है-ऐसे भिन्नस्वरूप से रात-दिन विचारता है। मैं परमात्मा हूँ-ऐसे अपने स्वभाव को प्रतीति में लेकर उसकी अगाध महिमा का चिन्तवन करता है। इस प्रकार ज्ञान के बल से अपने परमात्म -स्वरूप की प्रतीति की झंकार करता हुआ जो आत्मा जागृत हुआ, उसे राग की रुचि नहीं रही; अब कहीं अटके बिना, राग से भिन्न होकर, अन्दर जाकर, परमात्मतत्त्व की अनुभूति करेगा ही।
इस प्रकार सर्वज्ञ-समान अपने पूर्ण स्वरूप को साधने के लिये जो जीव उठा, उसकी प्रतीति की झंकार छिपी नहीं रहती। जिस प्रकार रण में चढ़े हुए शूरवीर, कायरता की बातें नहीं करते, उसी प्रकार वीर के मार्ग में चैतन्य की परमात्मदशा को साधने के लिये रण में चढ़ा हुआ मुमुक्षु, राग की रुचि में नहीं रुकता; राग
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